शिमला। कबाइली जिला लाहुल स्पिति में महिलाओं ही नहीं छोटे भाई बहनों को भी पुश्तैनी संपति यानी जमीन में मालिकाना हक का अधिकार नहीं मिलता लेकिन एफआरए यानी वनाधिकार अधिनियम 2006 के तहत गांव किब्बर की सुशीला हो या ताशी डोल्कर ये बरसों से जिस वन भूमि पर रही थी उस भूमि का इनको हक मिल गया हैं।
किब्बर गांव की सुशीला का मकान बरसों से वन भूमि पर था और उन्हें हमेशा डर रहता था कि सरकार उनको बेदखल कर देगी और उनका मकान ढहा देगी। लेकिन एफआरए के तहत उन्होंने चार साल पहले आवेदन किया और चार साल के इंतजार के बाद ये मकान उनके नाम हो गया ।
सुशीला कहती भी है कि उनका घर उनके नाम हो गया इसकी उनको बेहद खुशी है।सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है किसी महिला के नाम संपति हुई हैं। लाहुल स्पिति में पुश्तैनी जमीन बड़े भाई के नाम ही होती है। बाकियों के नाम जमीन नहीं होती हैं। ऐसे में किसी महिला के नाम इस तरह जमीन हो जाना बडी बात हैं। महिला कि नाम तभी जमीन होती है अगर वो विधवा हो जाए। उसके मरने के बाद से जमीन घर के बड़े बेटे के नाम चली जाती हैं।
सुशीला के पति उड़गिन दोरजे कहते है कि अब वो चैन की नींद सो सकते है। उनहोंने कहा कि बिजली का बिल सबूत के तौर पर मिल गया और उसके बाद गांव की एफआरए की समिति ने उनके मामले को आगे बढ़ा दिया। इस तरह चार साल लग गए और अब छह कमरों वाला एक मंजिला मकान उनकी पत्नी के नाम हो गया हैं।
इतने साल क्यों लगे इस बावत वो कहते है कि गांव के सभी मामले एक साथ निपटाए जाने थे सो बाकियों के मामले के साथ उनका मामला लटक गया।
इसी तरह किब्बर गांव की ही ताशी डोल्कर के मकान का आंगन सड़क की जद में आ गया था। ये पौने विस्वा के करीब जमीन थी लेकिन उनके मकान के लिए महत्वपूर्ण थी।उन्होंने भी एफआरए के तहत आवेदन किया और वो भी इस थोड़ी सी जमीन की मालकिन बन गई।
ताशी डोल्कर के पति का करीब 15 साल पहले देहांत हो गया था। अब वो अपने भाई के दामाद के साथ मनाली में रहती हैं। उनके दामाद तेनजिन ने कहा कि वो बीमार रहती है इसलिए वो इन्हें अपने साथ मनाली ले आएं। ताशी डोल्कर के कोई संतान नहीं हैं। ऐसे में पति के देहांत के बाद पुश्तैनी जमीन डोल्कर के नाम हो गई थी। पति के देहांत के बाद यहां पर जब तक पत्नी जीवित रहती है तब तक पुश्तैनी जमीन उसके नाम हो जाती हैं। बहरहाल अब ताशी डोल्कर उम्र के इस पड़ाव में निश्चिंत है कि उनके मकान को कोई खतरा नहीं हैं।
इसी तरह का मामला रंगरिक की छेरिंग डोल्कर का भी हैं।हालांकि उनसे बात नहीं हो पाई लेकिन जिन 42 ग्रामीणों को वन अधिकार कानून के तहत वन भूमि पर हक मिला उनमें उनका भी नाम हैं। जनजातीय जिलों में वन अधिकार कानून के तहत कई लोगों को जमीन के पटटे मिल गए हैं।
याद रहे हिमाचल में वन अधिकर अधिनियम को लागू करने की रफतार बेहद धीमी चल रही है। इस अधिनियम के तहत जनजातीय क्षेत्रों व बाकी इलाकों में परंपरागत तरीके से अगर कोई वन भूमि पर बसर कर रहा है तो उसे उस जमीन का मालिकाना हक देने का प्रावधान हैं। ये जरूर है कि इस जमीन को कोई आगे बेच नहीं सकता हैं।
याद रहे लाहुल स्पिति के काजा में एक अप्रैल को वन अधिकार अधिनियम 2006 यानी एफआरए के तहत 42 ग्रामीणों को वन भूमि पर बने उनके मकानों और बाकी जमीन जिस पर वो बरसों से रह रहे है के मालिकाना हक के प्रमाण पत्र वितरित किए।
ये प्रमाण पत्र कांग्रेस पार्टी की स्थानीय विधायक अनुराधा राणा ने बांटे। अधिकांश मामलों में मौके पर ही इंतकाल भी कर दिए गए।
याद रहे प्रदेश में एफआरए कानून को लेकर जनजातीय विकास व राजस्व मंत्री जगत सिंह नेगी पूरे प्रदेश में मुहिम चलाए हुए हैं। उन्होंने बीते दिनों बागवानी व वानिकी विवि नौणी सोलन में सोलन सिरमौर के अधिकारियों के साथ एक कार्यशाला का आयोजन किया। इसके अलावा कांगड़ा में भी कार्यशाला करने का प्रस्तावित है। किन्नौर में कार्यशालाएं हो रही हैं।
बीते दिनों मंत्री जगत सिंह नेगी ने कहा था कि लोगों को इस कानून की जानकारी नहीं हैं। ऐसे में जनजातीय विभाग हर जगह जागरूकता अभियान चलाएगा ताकि लोगों को कानून की जानकारी मिल सके और वो इसका फायदा उठा सके।वो कहते है कि लडडू पड़ा है बस खाने वाले को पहल करनी हैं।
याद रहे 2000 में हिमाचल में भाजपा की सरकार में तत्कालीन राजस्व मंत्री राजन सुशांत ने जिन लोगों ने सरकारी जमीन पर कब्जे कर रखे थे उनको नियमित करने के लिए एक नीति लाई थी। इसके तहत प्रदेश के लाखों लोगों ने आवेदन कर दिया। बाद में ये नीति नहीं चल पाई और सरकार ने इन लोगों के खिलाफ इन कब्जों को हटाने के लिए मुहिम छेड़ दी। लोगों को यही डर है कि कहीं इस कानून के तहत अगर उन्होंने आवेदन कर दिया तो कहीं उन्हें बेखल ही न कर दिया जाए।
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