शिमला। किसी जमाने में बहुत पवित्र पेशा माने जाने वाला मीडिया अब पत्रकारों के लिए काल बनने लग गया हैं।हिमाचल की राजधानी शिमला में महीने भर में ही दो पत्रकारों की मौत हो गई हैं।जबकि एक अन्य पत्रकार को स्ंटट पड़ गया हैं।
अंग्रेजी भाषा के टाइम्स आफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार आनंद बोध का बीती रात को उनके शिमला आवास में दिल का दौरा पड़ने के बाद मौत हो गई।शाम को उन्होंने रोजमर्रा की तरह अखबार के लिए खबरें भेजी और वह बिलकुल ठीक थे। रात साढ़े 11 बजे उनकी तबीयत खराब हो गई। लेकिन उन्होंने नहीं सोचा कि ये दिल का दौरा हो सकता है। लेकिन एक बजे के करीब अचानक वह कमरे में बिस्तर पर से धड़ाम से नीचे गिर गए।
गिरने की आवाज से यूएस क्लब स्थित उनके आवास की निचली मंजिल में सो रहे पड़ोसियों की नींद खुल गई ऊपर जाकर देखा तो आनंद बोध बेहोश पड़े थे। उन्हें तुरंत आइजीएमसी ले जाया गया। लेकिन….
आनंद बोध की उम्र केवल 48 साल थी।
इससे पहले 15 जून को अमर उजाला शिमला के वरिष्ठ पत्रकार विपिन काला की रिपन अस्पताल में मौत हो गई। वह भी लंबे समय से शुगर से जूझ रहे थे। इन दोनों पत्रकारों के परिवार सदमें में हैं। साथ ही तमाम आपसी मतभेदों के बीच शिमला का तमाम पत्रकार जगत भी सदमें में है।
इसी बीच वरिष्ठ पत्रकार धनंजय शर्मा को इन्हीं दिनों स्ंटट पड़े हैं।इन सभी पत्रकारों की उम्र साठ साल से कम है।पत्रकारों के इस तरह फ़ना हो जाने की अब पड़ताल करना जरूरी हो गया लगता है।
उधर,मीडिया जगत में पत्रकारों पर इतना दबाव खड़ा कर दिया गया है कि वह अब 24 घंटों अवसाद से घिरे रहने लगे है। पिछले दस सालों में तो स्थिति और भी ज्यादा विकट हुई हैं।
सरकारी कानूनों में पत्रकारों के लिए सामाजिक सुरक्षा का घेरा मीडिया संस्थानों ने तो छिन्न भिन्न कर ही दिया है साथ ही सरकार के अलावा न्यायपालिका और समाज का रुख भी पत्रकारों के प्रति रुखा व कसैला हो गया हैं। छोटे कद के राजनेताओं के सत्तासीन होने से सरकारों ने लोकतंत्र के चौथे स्ंतभ को बाजार का माल बना दिया हैं। कम से पिछले दो दशकों में स्थिति बेहद खराब हो गई हैं। पहले तो समझौतों के साथ-साथ पत्रकार अपने नौकरियां बचा भी लेते थे लेकिन अब जानें गंवाने का दौर शुरू हो गया हैं।
अगर मीडिया में खबरें छप जाने लगे तो सरकारें पत्रकारों को घुटनों पर लाने के लिए विज्ञापनों को रोक देती आ रही हैं। उधर,मीडिया संस्थानों से विज्ञापन एकत्रित करने का दबाव बढ़ गया हैं।सरकार चाहे वो जयराम की रही हो या अब सुक्खू की हो। विज्ञापनों के दम पर पत्रकारों को दबोचने का काम इनसे पहले भी होता रहा हैं। जनता के पैसों से दिए जाने वाले विज्ञापनों के आवंटन को सत्तासीन राजनेताओं व नौकरशाहों ने अपनी बपौती समझ लिया हैं।अभी तो तनाव व अवसाद की मार से पत्रकारों की ही जानें जा रही है लेकिन आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भविष्य में मीडिया जगत में मार्किंटिंग का काम देख रहे कर्मी इस फेहरिस्त में शामिल न हो जाए। रही सही कसर गोदी मीडिया व उनके मालिकों ने निकाल कर रख दी हैं।नौकरशाही का तबका जो कभी स्टीलफ्रेम कहलाता था वह अब मोमफ्रेम बन चुका हैं। अपने राजनीतिक आकाओं की आंखों में चमक की खातिर वह कुछ भी करता हैं।
गोदी मीडिया के लिए इनकी तिजोरियां कभी बंद नहीं हुई हैं।ठेकेदारों के जरिए प्रचार के नाम पर किए जाने वाला तमाम तामझाम अलग ही रंग में रंगा हैं।पिछले डेढ दशक में हिमाचल में भी कई कुछ हुआ हैं। पूरे देश का ही हाल ये बना दिया गया हैं। तभी तो फ्रीडम ऑफ स्पीच में भारत की वैश्विक रैंकिंग 161वें स्थान पर पहुंच गई हैं।
तमाम तरह के वो कानून बना दिए गए हैं जिससे पत्रकारों के लिए सम्मानजनक तरीके से पेशेगत काम करना मुश्किल हो गया हैं।गोदी मीडिया व सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर सत्ता केंद्रों ने पत्रकारों को निशाने पर लाने का काम किया हैं।
आलम ये है सरेआम सरकारों की नाक के नीचे सत्ताकेंद्रों से जुड़े तमाम तरह के असामाजिक ,बौद्धिक और राजनीतिक गुंडे पत्रकारों का कत्लेआम करने लग गए हैं। जहां कत्लेआम नहीं हो रहा है वहां कानून के जरिए दबोचने का काम एक सुनियोजित तरीके से किया जा रहा हैं।पुलिसिया टॉर्चर करने में पुलिस को भी बहुत मजा आता है। स्वर्गीय पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ कुमारसैन में दर्ज एफआइआर और जी टीवी के शिमला में सहयोगी रहे इसकी मिसाल रहे हैं आखिर में जाकर अदालत से राहत मिली लेकिन तक तक शिमला में जी टीवी के पत्रकार को नौकरी बदलनी पड़नी थी व विनोद दुआ को न जाने क्या -क्या झेलना पड़ा था। ये तो महज गिने चुने मामले है। सरकारों व अदालतों की फाइलों में न जाने क्या-क्या आगे पीछे सरक रहा हैं। जिन लोगों ने इन जैसे सैंकड़ों पत्रकारों को देश भर में सताया वो आज भी मौज कर रहे हैं।
यही नहीं कुछ कथित स्वयंभू ताकतवरों ने तो उन संपादकों के खिलाफ भी अदालतों में मुकदमें कर दिए जिस अखबार में कभी वो खबर छपी ही नहीं। लेकिन आश्चर्य अदालती कार्यवाही से भी हैं।शायद कभी अदालतें भी संज्ञान ले।अन्यथा लाशें तो गिर ही रही हैं। क्या फर्क पड़ता हैं।
ऐसा नहीं है कि मीडिया के लोग पूरी तरह से ही पाक साफ है। कई मठाधीशों ने सत्ताकेंद्रों से सांठगांठ कर पत्रकारिता का सौदा नहीं किया होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसी आहटें कानों में सुनाई देती रही हैं कि चुनावों के दौरान सफेद लिफाफों का रिवाज भाजपा ही नहीं कांग्रेस ने भी चला रखा हैं।
याद रहे मीडिया घरानों के स्वामित्व को लेकर कब से एक बड़ी मांग उठाई जा रही हैं।लेकिन इसके बिलकुल उल्ट बड़े कारपोरेट घरानों के सुपुर्द कई-कई संस्थानों को कर दिया गया हैं। अब पत्रकारों के पास जानें गंवानें के अलावा ज्यादा बचा भी कुछ नहीं हैं। सभी चाहते है पत्रकार समाज के हर तबके लिए खड़ा रहे लेकिन जब वो लड़खड़ा कर धड़ाम से गिरता है तो उसे थामने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ता।जमीनी स्तर पर न संविधान,न अदालतें न समाज और न ही सरकारें ।
बहरहाल,जयराम की तरह सुक्खू सरकार से भी कोई उम्मीद नहीं हैं। लाडले फर्स्ट !बाकी बस इंतजार करते रहे मीडिया जगत से और किसी दिन किसी और बुरी खबर आने का। आनंद बोध व विपिन काला की आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे!
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