शिमला । प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल इंदिरा गांधी मेडिकल अस्पताल में स्क्रब टायफस नामक बीमारी से 1 मई से 24 सितंबर तक15 लोगों की मौतें हो चुकी है। लेकिन प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग मौतों का ये सिलसिला थाम पाने में कामयाब नहीं हो पा रहा।
मौतों का ये आंकड़ा प्रदेश के अलग-अलग जगह से आइजीएमसी में आने वाले मरीजों का है। इसके अलावा प्रदेश के उन मरीजों की कोई गिनती नहीं है जो अस्पताल पहुंचे ही नहीं और दम तोड़ गए।आईजीएमसी के वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक डाक्टर रमेश चंद ने कहा कि अधिकतर मरीज एडवांस स्टेज पर अस्पताल पहुंचे इसलिए उन्हें बचाया नहीं जा सका है।
उन्होंने कहा कि अब तक प्रदेश के इस सबसे बड़े अस्पताल में आठ सौ ज्यादा मरीज स्क्रब टायफस के आ चुके है। जिनमें से 15 को बचाया नहीं जा सका है। स्वास्थ्य विभाग से हासिल किए आंकडों के मुताबिक मई से 24 सितंबर तक प्रदेश में 1231 मामले पाजिटिव पाए गए है।सीएमओ शिमला आर के गुप्ता के मुताबिक जिला शिमला में अब तक सात लोगों की मौत हो चुकी है।
प्रदेश में इस बीमारी का सही पता केवज आईजीएमसी और आर पी अस्पताल टांडा में ही लगाया जा सकता है। राज्य में इन्हीं दो अस्पतालों में एलिजा टेस्ट की सुविधा है। इस बुखार का पता इसी टेस्ट से लगता है।प्रदेश में इस बीमारी से पिछले दस सालों से मरीजों की मौत हो रही है। लेकिन सरकार इस दिशा में संजीदा ही नहीं है। इस बुखार का समय रहते पता लगाने के लिए जिला अस्पतालों में एलिजा रीडर की सुविधा मुहैया कराई जा सकती थी। लेकिन ये रीडर भी किसी अस्पताल में नहीं है।ऐसे में आईजीएमसी और टांडा में मरीज यहां तक एडवांस स्टेज में ही पहुंचता है तब उन्हें बचाना मुश्किल होता है। सीएमओ बिलासपुर एमएल कौशल ने कहा कि इस बुखार का पता लगाने के लिए जिला अस्पतालों में सुविधा ही नहीं है।जिला अस्पताल में वेलफिल्क्सि टेस्ट करते है। उससे सही पता नहीं चलता कि मरीज को स्क्रब टायफस ही है या कोई और बुखार है। अगर ये पाजिटिव पाया जाया तो वो मरीज को आईजीएमसी रेफर कर देते है।
निदेश स्वास्थ्य सेवा कुलभूषण सूद ने कहा कि विभाग पूरा प्रयास कर रहा है। लेकिन मरीज एडवांस स्टेज पर आरहे है ऐसे में इन मरीजों को नहीं बचाया जा सकता। लोगों की भागीदारी नहीं होगी तो विभाग कुछ नहीं कर सकता।
स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह ठाकुर ने कहा कि 2012 में 37 मौते हुई थी। लोग लापरवाह है। वो इसे आम बुखार समझ पैरासिटामोल की गोलियां खिलाते रहते है। विभाग ने प्रदेश भर के डॉक्टरों को इस बारे में लोगों जागरूक करने के आदेश् दे रखे है और जागरूकता अभियान भी चला रखा है।
लेकिन मंत्री के दावे जमीन पर सही साबित नहीं हो रहे है। स्वास्थ्य विभाग की ओर से जागरूकता फैलाने के लिए आईइसी प्रोग्राम चलाया जाता है। ये प्रोग्राम अस्पतालों में आने वाले मरीजों तक ही सीमित है और वहां भी पैम्फलेंट बांटे जा रहे है।ये बांटे भी जा रहे है या नहीं ये भी पता नहीं है। जबकि जागरूकता अभियान पंचायत स्तर तक होना चाहिए।अगर सही समय पर पता चल जाए तो इस बुखार का इलाज डोक्सीसाइक्लिन नामक कैप्सूल है। एक कैप्सूल एक या दो रुपए का है और कम से कम दस दिन तक रोजाना एक कैपसूल खाना होता है।लेकिन मजे की बात है कि प्रदेश भर में फैले हेल्थ सब सेंटर्स में तैनात हेल्थ वर्कर इस दवा को किसी बीमार को लिख कर दे ही नहीं सकते और सबसे पहले गांव का मरीज सब सेंटर में ही जाता है। इसके बाद वो पीएचसी के चक्कर लगाता है और उसके बाद जिला अस्पताल पहुंचता है तब तक बुखार एडवांस स्टेज पर पहुंच जाता है।
उधर, स्वास्थ्य विभाग के पूर्व ज्वाइंट डायरेक्टर नरेश मेहता ने मंत्री कौल सिंह और निदेशक कुल भूषण सूद के दावों को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि प्रशासनिक स्तर पर ढील के कारण मौतें नहीं रूक पा रही है। स्वास्थ्य विभाग को मालूम है कि जुलाईसे लेकर अक्तूबर तक प्रदेश में ये बुखार कहर ढाता है। विभाग को पहले तैयारी करनी चाहिए।आईइसी प्रोग्राम के तहत पंचायतों की बैठकों तक में जानकारी मुहैया कराई जानी चाहिए।पैसे की कोई कमी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग का प्रदेश भर में बड़ा जाल है।डोक्सी साइकलिन दवा को सब सेंटर तक पहुंचाया जाना चाहिए। इस दवा का कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है। अगर आम बुखार भी है तो भी इसे दिया जा सकता है। कम से कम जान तो बच सकती है।उन्होंने कहा कि डोक्सी साइकलिन का एक कैपसूल प्रतिदिन इस बुखार से जान बचा देगा। ये सस्ती दवा है।
उधर, निजी अस्पतालों मे आने वाले मरीजों का कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है।वहां मरीजों के साथ क्या हो रहा है। ये सामने नहीं आ रहा है।वहां पर वैसे ही महंगा इलाज होता है।जबकि डोक्सीसाइकलिन सस्ती दवा है।
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