शिमला। टीबी यानी क्षय रोग से हिमाचल प्रदेश में मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा हैं और सरकार ने 2025 के आखिर तक प्रदेश को टीबी मुक्त करने का लक्ष्य रखा हैं। प्रदेश में 2021 में टीबी से 959 लोगों की मौतें हुई जबकि अगले साल 2022 में ये आंकड़ा बढ़कर 1038 तक बढ़ गया। 2023 में 904 और 2024 में अब तक टीबी से प्रदेश में 610 मौतें हो चुकी है। इतनी मौतें तब हो रही है जब सरकार दावा कर रही है कि उसके पास टीबी के ईलाज का पूरा और मुफत में इंतजाम हैं।जाहिर है कहीं न कहीं बड़़ी चूक इस मामले में निपटने में हो रही हैं।
राजधानी में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ,राज्य क्षय रोग प्रकोष्ठ और स्वयं सेवी संस्था द यूनियन अंगेस्ट टयूबरोक्लोसिस के सहयोग से आयोजित मीडिया सहभागिता सत्र में टीबी के राज्य कार्यक्रम अधिकारी डा. रविंदर कुमार ने दावा किया कि मौतों की दर ज्यादा इसलिए है क्योंकि मरीज देरी से चिन्हित हो रहे हैं। इसके अलावा टीबी के अलावा मरीजों को कोई दूसरी बीमारी भी साथ में हैं। उन्होंने कहा कि 70 फीसद मरीज बीमारी की आखिरी चरण में अस्पताल पहुंचते हैं। बाकी की तीस फीसद की मौतें इसलिए हो रही है क्योंकि मरीजों को कोई दूसरी बीमारी जैसे कैंसर और मधुमेह आदि थी।
ये कार्यक्रम टीबी को समाप्त करने के जन आंदोलन में मीडिया की भागीदारी पर था लेकिन इस कार्यक्रम में न तो प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री धनीराम शांडिल शामिल हुए न स्वास्थ्य सचिव एम सुधा और न ही निदेशक स्वास्थ्य विभाग गोपाल बैरी ने शिरक्त की। एनएचएम की मिशन निदेशक प्रियंका वर्मा भी इस कार्यक्रम में आई तो जरूर लेकिन वो भी कुछ की समय तक यहां मौजूद रही। साफ है सरकार और सरकारी मशीनरी मीडिया और उसकी भूमिका को लेकर कितनी गंभीर हैं।यही नहीं केंद्र सरकार की ओर से भी परियोजना अधिकारी इस कार्यक्रम में पहुंची।
एनएसएम की मिशन निदेशक प्रियंका वर्मा ने कहा कि टीबी को लेकर तरह-तरह के भ्रम लोगों में है इसलिए मीडिया को अपनी भूमिका निभानी चाहिए।प्रदेश में बाकी वर्गो के अलाव कैदियों के लिए भी कार्यक्रम चलाया गया है और हिमाचल को 2025 के आखिर तक टीबी मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया है।
इसके अलावा द यूनियन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर एसीएसएम-एनटीएसयू अनीषा सिंह ने खुलासा किया कि अभी लोग टेस्टिंग के लिए नहीं आ रहा हैं। प्रदेश व देश भर में टीबी से जूझने के लिए हर तरह का ढांचा खड़ा है । तमाम आधुनिक उपकरण और दवांए मौजूद है लेकिन इसके बावजूद लोग जांच करने के लिए नहीं आ रहे है। संभावित टीबी रोगियों को ढूंढ निकालना चुनौतीपूर्ण बन गया है व इस दिशा में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं।
अनीषा सिंह ने कहा कि अगर समय पर टीबी रोगी को चिन्हित नहीं जाता तो वो 10 से पंद्रह अन्य लोगों में टीबी फैलाने का कारण बन सकता हैं। उन्होंने कहा कि इसके लिए तमाम तरह के कदम उठाए जा रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अर्चना फुल्ल ने इस मौके पर कहा कि गांवों व दुर्गम इलाकों में लोग बीमार होने पर पहले अपने देवी देवताओं के पास जाते हैं। आस्थाओं का ये चलन मरीजों को अस्पताल का पहुंचने में देरी का कारण बन जाता है और बीमारी आखिरी चरण तक पहुंच जाती है। इस दियाा में मीडिया बड़ी भूमिका निभा सकता हैं। इसके अलावा सरकारी स्तर पर हितधारक भी इस दिशा में मीडिया तक जानकारी नहीं पहुंचा पाते। टीबी को अभी भी कंलक माना जाता है और समाज के दबाव की वजह से लोग इस बीमारी को छिपाते है और जांच के लिए आगे नहीं आते। उन्होंने कहा कि जिस तरह से एचआइवी को लेकर अभियान चलाया गया था उसी तरह से टीबी को समाप्त करने के लिए अभियान चलाने की जरूरत है। उन्होंंने सुझाव दिया कि जो टीबी चैंपयिन या टीबी सर्वाइबर है उनके इंस्टिव बढ़ाने की जरूरत हैं।
इस मौके पर टीबी को एक सामाजिक समस्या करार दिया गया। इस मौके पर टीबी की बीमारी के बाद ठीक हुए टीबी चैंपियंस ने भी अपने अनुभव साझा किए।
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