शिमला। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न निगमों व बोर्डों यानी कारपोरट सेक्टर से रिटायर सात हजार से ज्यादा सेवानिवृत कर्मियों ने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से इन बोर्डों व निगमों के कर्मचारियों को पेंशन से वंचित करने के 2004 के कार्यकारी आदेश को वापस लेने की मांग की हैं।
हिमाचल प्रदेश कारपोरेट सेक्टर के सह समन्वयक गोविंद चतरांटा ने कहा है कि एक साधारण से कार्यकारी आदेश – 2004 की कट-ऑफ सीमा को वापस लेने व पेंशन समानता को बढ़ाने से इस अन्याय को समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा है कि हर दिन के बीतने के साथ ही पेंशन भोगी इंतजार करते- करते हुए मर रहे हैं।
चतरांटा ने कहा कि यह अन्याय 1999 से शुरू हुआ जब हिमाचल सरकार ने केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1972 के तहत एक पेंशन योजना शुरू की, जिसमें राज्य निगमों के कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों के बराबर कर दिया गया। पांच साल तक यह व्यवस्था चलती रही यानी 2 दिसंबर, 2004 तक। लेकिन तब सरकार ने अचानक एक कट-ऑफ तिथि लागू कर दी, जिससे उस दिन के बाद सेवानिवृत्त होने वालों से पेंशन के अधिकार छीन लिए गए, जबकि पहले सेवानिवृत्त होने वालों के लाभों की रक्षा की गई।
पेंशन को लेकर इस मनमाने विभाजन ने रातों-रात पेंशनभोगियों के दो वर्ग बना दिए। एक समूह को सेवानिवृत्ति के बाद सम्मानजनक सुरक्षा मिलती रही, जबकि दूसरे को छोड़ दिया गया। प्रभावित कर्मचारी जिनमें से कई 30-40 साल की सेवा के बाद भी – चिकित्सा कवरेज, मुद्रास्फीति-समायोजित पेंशन या यहां तक कि मासिक आय के आश्वासन के बिना रह गए।
कोई राहत नहीं मिलने के बावजूद कानूनी यात्रा
उन्होंने कहा कि पेंशनभोगियों ने अदालत में यह तर्क देते हुए लड़ाई लड़ी कि 2004 के निरसन ने समानता (अनुच्छेद 14), गैर-भेदभाव (अनुच्छेद 16) और संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 300ए) की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन किया है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने सहमति जताते हुए 2013 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 2016 में इस फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि पेंशन नीति राज्य का विशेषाधिकार है।
इससे विचलित हुए बिना, सेवानिवृत्त लोगों ने समीक्षा याचिकाएँ दायर की व 16 अप्रैल, 2025 को, सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, और राज्य सरकार के नीतिगत विवेक पर छोड़ दिया हालांकि नवंबर 2023 में दायर एक हलफनामे में हिमाचल सरकार ने इस मसले पर पुनर्विचार का वादा किया था।
चतरांटा ने कहा कि नेताओं और नौकरशाह बिना किसी सवाल के सेवानिवृत्ति के बाद के भत्तों का आनंद लेते हैं, हमें दशकों की सेवा के बाद भी बुनियादी पेंशन से वंचित रखा जाता है। कट-ऑफ तिथियों पर न्यायपालिका के असंगत फैसले इसे और भी बदतर बना देते हैं – कुछ मामलों में, अल्पकालिक नियुक्तियों को भी पेंशन मिलती है, लेकिन हम, जिन्होंने जीवन भर सेवा की है और हमें भीख मांगने के लिए छोड़ दिया हैं।
उन्होंने कहा कि न्यायपालिका के पीछे हटने के बाद गेंद अब राज्य सरकार के पाले में है। और सरकार एक साधारण कार्यकारी आदेश – 2004 की कट-ऑफ को वापस लेकर इन सात हजार सेवानिवृत कर्मियों के साथ न्याय कर सकती हैं।
चतरांटा ने कहा कि सुखविंदर सिंह दिसंबर 2022 में सत्ता में आई सुक्खू सरकार ने 1.36 लाख राज्य कर्मचारियों और 1.90 लाख मौजूदा पेंशनभोगियों के लिए पुरानी पेंशन योजना (OPS) बहाल करके उम्मीदें जगाईं। बिजली बोर्ड, परिवहन निगम और नगर निकायों के कर्मचारियों को भी कवर किया गया। फिर भी, 7,000 कॉर्पोरेट सेवानिवृत्त-जिनमें से कई एक ही विभाग से हैं-को बेवजह बाहर रखा गया।
ई सेवानिवृत्त अब चिकित्सा कवरेज के बिना गंभीर बीमारियों-कैंसर, पक्षाघात और हृदय रोग से पीड़ित हैं। कुछ को मनरेगा में शारीरिक श्रम करने के लिए मजबूर किया गया है।
उन्होंने कहा कि 2004 का निरसन न केवल भेदभावपूर्ण था, बल्कि कानूनी रूप से गलत था। अदालत ने भी एक मामले में माना है कि पेंशन कोई “उपहार” नहीं बल्कि अर्जित अधिकार है। इससे भी बदतर, राज्य द्वारा 2003 से पहले नियुक्त लोगों के लिए नई पेंशन योजना (एनपीएस) को हाल ही में समाप्त करना इसकी अपनी असंगतता को उजागर करता है। उन्होंने कहा कि यदि 2003 से पहले की सेवा पेंशन सुरक्षा के योग्य है, तो उसी अवधि के कॉर्पोरेट सेवानिवृत्त लोगों को क्यों बाहर रखा गया है।
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