नई दिल्ली, 10 जुलाई : देश में संस्कृत , पाली और प्राकृत भाषा में स्नातक और परास्नातक करने वाले छात्र रोजगार और भविष्य को लेकर असमंजस में हैं , जबकि विद्वानों का मानना है कि छात्रवृत्ति आदि का प्रावधान कर इन भाषाओं को फिर से जीवंत करने में मदद मिल सकती है।
पूजा ने अपनी उच्च शिक्षा संस्कृत में हासिल की है , लेकिन वह अपने करियर को लेकर चिंतित हैं।
23 वर्षीय पूजा इतिहास के पाठ्यक्रम में दाखिला लेना चाहती थी लेकिन अंकों की वजह से उन्हें उसमें प्रवेश नहीं मिला और उन्हें संस्कृत का चयन करना पड़ा।
दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य विश्वविद्यालय में नए बैच शुरू होने वाले हैं। वहीं इन भाषाओं की उपयोगिता और व्यवहार्यता को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
पूजा संस्कृत में डिग्री हासिल करने के बाद सीमित करियर विकल्पों को लेकर अफसोस जताती हैं , लेकिन उन्हें भाषा बहुत पसंद है।
उन्होंने पीटीआई भाषा से कहा , ‘‘ लोग मुझसे पूछते रहते हैं कि आज के समय में मैं संस्कृत में ली गई डिग्री का क्या करूंगी। कोई व्यक्ति शिक्षाविद् , अनुवादक या मीडिया उद्योग में कोई काम कर सकता है। ’’
उन्होंने कहा , ‘‘ जब मैंने विषय को पढ़ना शुरू किया तो मुझे अहसास हुआ कि संस्कृत एक खूबसूरत और उदार भाषा है। ’’
पूजा दिल्ली विश्वविद्यालय से संस्कृत में परास्नातक कर रही हैं। उन्होंने स्नातक भी इसी भाषा में किया है।
सेंट स्टीफंस कॉलेज में संस्कृत के एसोसिएट प्रोफेसर पंकज मिश्रा के मुताबिक , रोजगार के कम अवसर और कम भुगतान की वजह से भाषा में छात्रों की दिलचस्पी कम हो रही है।
मिश्रा ने कहा , ‘‘ अनुवादकों को एक पन्ने के 200 से 300 रुपये दिए जाते हैं , जो दिहाड़ी मजदूर की मजदूरी से भी कम है। ’’
दिल्ली विश्वविद्यालय के सिर्फ 29 कॉलेज संस्कृत में पाठ्यक्रम कराते हैं।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर दीपांकर मुखोपाध्याय ने कहा कि पर्याप्त मात्रा में कोष उपलब्ध कराने और छात्रवृत्ति के जरिए भाषा में रूचि को फिर पैदा किया जा सकता है।
पाली और प्राकृत जैसी प्रचीन भाषाओं का भी यही हाल है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के बुद्धिस्ट स्टडीज के मुताबिक परास्नातक पाठ्यक्रम में 234 सीटों में से हर साल 125 सीटें खाली रह जाती हैं।
विभागाध्यक्ष के टी एस साराओ ने कहा कि धार्मिक भाषा संगठन भी कोई विषय पढ़ने को लेकर छात्रों के फैसले को प्रभावित करते हैं।
साभार एजेन्सी
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