भारतीय ग्रंथों में बेहद शिक्षाप्रद कथाएं हैं और आज भी प्रासंगिक है। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड में हम अपने अतीत को भूल गए हैं। मनुष्यों में भौतिक सुखों व वासना की लालसा आज से नहीं बल्कि सदियों से हैं। वह वासना व सुखों का दास बना रहा रहा हैं। लेकिन उसकी तृप्ति कभी पूरी नहीं हुई वह बढती ही गई। यही लालसा उसके दुखों का कारण भी रहा हैं।
यह कथा है एक राजा की
ग्रंथों में एक कथा ययाति नामक एक राजा की आती है। कहते है कि असुरों के गुरु शुक्राचार्य के श्राप से यह राजा समय से पहले ही बुढा हो गया । लेकिन शुक्राचार्य ने उसे एक वरदान दिया कि वह अपना बुढापा किसी को देकर बदले में उसकी जवानी ले सकता हैं।
ययाति ने अपना बुढापा अपने पुत्र पुरु को दे दिया और बदले में उससे उसकी तरुणाई ले ली। वह भी सौ- दो सौ साल के लिए नहीं बल्कि पूरे एक हजार साल के लिए। उसने तब पूरे एक हजार साल तक तमाम तरह के विषय -भोगों को उपभोग किया।किया।
आखिर में मिली सीख
लेकिन आखिरी में एक हजार साल तक तमाम तरह के विषय –भोगों का उपभोग करने के बाद उसे अनुभव हुआ कि इस दुनिया के तमाम पद्धार्थ भी मुनष्य की सुख –वासना को तृप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उसने कहा कि जिस तरह से अग्नि में हवन सामाग्री डालने पर ज्वाला जलती ही जाती है उसी तरह विषय-वासना भी उसी तरह से बढती जाती है। यही लालसा दुखों का कारण हैं।
इसीलिए भारतीय धर्म ग्रंथकारों ने कहा है कि मनुष्य को अपने कामोपभोग की मर्यादा बांध लेनी चाहिए।
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