शिमला।सुक्खू सरकार सत्ता के मद में अंधी हो चुकी है। राजधानी शिमला में 779 दिनों से खुले आसमान के नीचे अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत दृष्टिबाधितों का संघर्ष ये साबित करने को काफी है। सुक्खू सरकार ही नहीं सुक्खू सरकार की ताकतवर लेकिन दंभ से भरी नौकरशाही भी इन दृष्टिबाधितों की आवाज़ को अनसुना करने में आनंद का मजा लेती नजर आ रही है। ये दीगर है कि सीएम सुक्खू खुद एक चालक के पुत्र होने का दम भरते रहते है लेकिन समाज में बेहद असहाय तबका दृष्टिबाधितों के प्रति उनका रवैया तमाम क्रुरताओं की हदें पार करता नजर आ रहा हैं।
बहरहाल,सरकार तो सरकार,विपक्षी पार्टी भाजपा और उसके नेता और जनता की आवाज़ उठाने का दम भरने वाले वामपंथी भी इन दृष्टिबाधितों का सहारा बनने के लिए तैयार नहीं हैं।सहारा तो क्या इनकी आवाज से आवाज तो मिला ही सकते है।जबकि प्रदेश भर में सैंकड़ों कर्मचारी संगठन है लेकिन इन दृष्टिबाधितों की आवाज तो दूर परोक्ष से खाने-पीने की मदद तक करने को तैयार नहीं हैं।
उधर, सुक्खू सरकार की पुलिस कहती है कि अगर आंदोलनरत इन दृष्टिबाधितों ने आवाज ऊंची की तो वो इनकी धड़कने बंद कर देगी। जबकि सोशल मीडिया पर आए दिन वायरल होने वाली वायरल क्वीन मैडम कहती है कि वो सीएम सुक्खू के खिलाफ कुछ भी नहीं सुन सकती।
सता की धमक और जनता की रकम पर अफसरों का इस तरह का दंभ दिखाना नया नहीं है।
यही नहीं प्रदेश में एक मानवाधिकार आयोग भी है बेशक वो डिफंक्ट ही है लेकिन वो भी इन दृष्टिबाधितों की सुध लेने की जहमत नहीं उठा रहा है।
सुक्खू सरकार के सरकारी तंत्र में तमाम नेता,अफसर कर्मचारी महीने के आखिर में अपनी जेब में वेतन की रकम भरते है और चल निकलते है। संवेदनहीनता ही तमाम हदों का पार हो जाना ये आंदोलन दिखलाता है। दृष्टिहीनों के साथ सरकारों का रवैया पहले भी ऐसा रह चुका है।
बहरहाल,कुदरत कहे या हालातों ने प्रदेश भर में करीब चार सौ लोगों की आंखों की रोशनी छीन ली और उन्हें दूसरों पर निर्भर बना डाला। इनमें से कुछ तो बचपन से ही दृष्टिबाधित है जबकि कइयों की रोशनी बाद में जाती रही। हालांकि संवैधानिक और नैतिक तौर तौर पर सरकार को इनकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी लेकिन सुक्खू सरकार ने इनकी जिम्मेदारी उठाने के बजाय अपने मित्रों की जिम्मेदारी लेने को तरजीह दी और चहेतो की जेबें भरने का इंतजाम किया हुआ है।काश सुक्खू सरकार अपनी सरकार के तीन साला जश्न में इन दृष्टिबाधितों को भी शामिल करती तो प्रदेश की जनता ही नहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, के अलावा प्रियंका गांधी और कांग्रेस पार्टी की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी भी खुश होती लेकिन मद में चूर मुख्यमंत्री सुक्खूऔर उनकी सरकार अलग ही डफली बजाने में मशगूल हैं।
राजधानी शिमला में काली बाड़ी मंदिर के नीचे पिछले 779 दिनों से अपने मांगों को लेकर प्रदेश भर के दृष्टिबाधित आंदोलन कर रहे है। जबकि पिछले 46 दिनों से इनका एक जत्था सचिवालय के बाहर खुले आसमान के नीचे आंदोलनरत है। लेकिन चंद मीटर भीतर बैठे मुख्यमंत्री सुक्खू,उनके सलाहकार और उनकी नौकरशाही को इनकी आवाज़ सुनाई तो दे रही होंगी लेकिन दंभ से सराबोर ये जुंडली इस आवाज़ की ओर तव्वज़ों नहीं दे रही है। शायद सरकार का कोई मित्र इन दृष्टिबाधितों में शामिल नहीं है अन्यथा अब तक न जाने ये सरकार क्या कर बैठती। चूंकि खजाना तो जनता का ही खर्च होना है।
सचिवालय के बाहर धरने पर बैठे हिमाचल प्रदेश दृष्टिहीन जन संगठन के शिमला जिला के प्रभारी राजेश ठाकुर कहते है कि जब वो धरने पर बैठे तो उनका बेटा पांच साल का था आज वो सात साल का हो गया है लेकिन सरकार उनकी आवाज़ नहीं सुन रही है।
जिला शिमला के रामपुर के गांव कटतोट के राजेश ठाकुर जन्म से ही दृष्टिहीन नहीं थे जब वो 32 साल के हुए तो वो और उनकी दो बहने अचानक दृष्टिहीन हो गए है। एक ही परिवार में तीन लोगों का अचानक दृष्टिहीन हो जाना अंचंभे से कम नहीं था । लेकिन ये हो गया। इससे पहले राजेश ठाकुर प्लंबर का काम कर अपने परिवार का भरण पोषण करता रहा लेकिन अचानक आंखों की रोशनी गई तो यह और इसकी दोनों बहने मुश्किल में आ गईं। राजेश ठाकुर के परिवार से सरकारी या स्थाई रोजगार में कोई नहीं हैं।
ठाकुर कहते है कि उनकी मांग है कि सरकारी विभागों में 1995 से लेकर अब तक तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के आठ सौ पद विकलांग कोटे के खाली पड़े है।इनमें से एक फीसद पद दृष्टिहीनों के लिए हैं। उनका संगठन पिछले 779 दिनों से इन्हीं पदों को भरने की मांग कर रहा है।
अगर सरकार नौकरी नहीं दे सकती तो दृष्टिबाधितों 6 से आठ हजार रुपए महीना पेंशन दें ताकि वो अपने परिवार का भरण पोषण कर सके।वो कहते है कि उन्हें 1700 रुपए सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलती है लेकिन वो भी तीसरे महीने मिलती है।इसके अलावा संगठन बीपीएल और सीएम आवास योजना में दृष्टिबाधितों को बिना शर्त शामिल करने की मांग कर रहा है।
ठाकुर ने कहा कि पूर्व की जयराम सरकार ने उनके लिए सहारा योजना चलाई थी लेकिन सुक्खू सरकार में पिछले सात-आठ महीने से इस योजना के तहत मिलने वाली तीन हजार की पेंशन भी बंद है।इस बावत जब कल्याण विभाग के निदेशक सुमित खिमटा से संगठन ने जानना चाहा तो वो कहते है कि स्वास्थ्य विभाग से इस बावत पता करो।
ठाकुर कहते है प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से वो छह बार मिल चुके है लेकिन वो चलते-चलते एक दो मिनट के लिए ही मिलते है और हर बार भरोसा देते है कि वो उनके लिए काम कर रहे है। लेकिन उनका भरोसा आज तक तो पूरा नहीं हुआ है।
इसी तरह अपने आंदोलन के दौरान वो तब तत्कालीन मुख्य सचिव प्रबोध सक्सेना से भी मिले। सक्सेना भी यही कहते रहे कि वो उनके मसलों को कैबिनेट की बैठक में ले जाएंगे लेकिन उनके मसले कभी कैबिनेट में नहीं गए।
सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री धनीराम शांडिल अगस्त महीने में उनसे मिलने धरनास्थल पर आए थे । वो तब भरोसा दे गए थे कि महीने भर में वो उनके लिए भर्ती निकाल देंगे। लेकिन ये भर्ती आज तक नहीं निकली है।
आंदोलन पर बैठे निखिल मेहता कहते है कि प्रदेश में 400 के करीब दृष्टिहीन है इनमें से 150 के करीब महिलाएं है। वो कहते है मुख्यमंत्री सुक्खू ने उनसे पिछले साल कहा था कि जनवरी महीने में याद दिलाना ।लेकिन अब दूसरी जनवरी भी आने वाली है। कहीं कुछ नहीं किया।
जिला कुल्लू के गाड़ा गुशैणी के 27 साल के भोला दत बांसुरी बजाने का हुनर जानते है।12वीं पास भोला दत कहते है कि वो बचपन में बीमार हो गए और उनकी आंखों की रोशनी चली गई। वो कहते है कि उनके परिवार से भी कोई भी नौकरी में नहीं है। पंचायत वाले उनको बीपीएल में शामिल नहीं कर रहे थे उन्हें हेल्पलाइन 1100 पर शिकायत करनी पड़ी तब जाकर उनको शामिल किया गया।दृष्टिहीन होने के बावजूद वो घर में भेड़-बकरियां चरा लेते है। घास भी काट लेते है और लकड़ी भी फाड़ लेते है।
इसी तरह धरने पर बैठे आनी के गांव खुडजल देवरी के देशराज ने तो आटीआइ सुंदरनगर से कम्प्यूटर में आइटीआइ भी कर रखा है। वो डाटा एंट्री से लेकर कंम्प्यूटर पर कार्यालय का तमाम काम कर सकते है। वो कहते है कि वो सात-आठ महीने से धरने पर है।पर सरकार उनकी मांग ही नहीं मान रही है।
रोहड़ू के डाक गांव के विनोद ने तो ब्रेल भी सीखी है। वो कहते है कि उनके लिए मनरेगा योजना के तहत भी काम नहीं मिलता। इस योजना के तहत 70 फीसद से कम विकलांगों को काम मिलता है। ऐसे में उनके लिए तो कोई रास्ता ही नहीं बचा है जहां से वो रोजी रोटी कमा सके। वो कहते है कि शिक्षा विभाग में ही 97 और एक अन्य विभाग में 92 पद दृष्टिहीनों के लिए खाली है।
वो कहते है कि 2004 और 2008 में उनके लिए भर्ती निकली थी। संगठन चाहता है कि उसी तरह अब भी उनके लिए एकमुश्त भर्ती निकले ताकि तीन चार सौ खाली पदों पर उन्हें नौकरी दे दी जाए।
वो कहते है कि ऐसा नहीं है कि दृष्टिहीन नौकरी में नहीं है। बिजली बोर्ड में सुपरइनटेनडेंट के पद तक दृष्टिहीन पहुंचे है। जबकि सहकारिता विभाग में जिला इंस्पेक्टर के पद भी इसी वर्ग से नौकरी मिली हुई है। मुस्कान तो सहायक प्रोफेसर बन गई है।
निखिल मेहता कहते है कि जब से वो आंदोलन में बैठे है तब से पंजाब व हरियाणा में दो बार भर्ती निकल चुकी है। यही नहीं इन पड़ोसी राज्यों में पेंशन भी ज्यादा है। लेकिन हिमाचल में पैसे ही नहीं है।
सचिवालय के बाहर आंदोलन पर बैठे इन दृष्टिहीनों ने कहा कि वो बीते दिनों अतिरिक्त मुख्य सचिव सामाजिक न्याय व आधिकारिता टॉप आइपीएस अफसर श्याम भगत नेगी से भी मिले। उन्होंने भी भरोसा दिया है कि 22 दिसंबर के बाद संगठन के प्रतिनिधिमंडल की बैठक मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कराई जाएगी।
ये पूछे जाने पर कि क्या कांग्रेस व भाजपा के कोई नेता उनसे मिलने आए तो उन्होंने कहा कि उनसे कोई मिलने नहीं आता।
पिछले विधानसभा सत्र से पहले संगठन का एक प्रतिनिधिमंडल भाजपा विधायक सतपाल सत्ती से मिला था। सती ने उन्हें भरोसा दिया था कि वो उनकी आवाज़ सदन में उठाएंगे । वो इंतजार करते रहे लेकिन उनकी आवाज सदन में नहीं गूंजी।
इसी तरह नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर भी उनसे नहीं मिले। क्या वामपंथियों में से कोई उनसे मिलने आया तो इन्होंने कहा कि इनसे कोई मिलने नहीं आया।
शिमला के मशहूर समाजसेवी बॉबी जरूर उनसे मिलने आए थे । वो मदद भी कर के गए। इसके अलावा समाजसेवी संस्था साहस की ओर से भी उनके लिए मदद दी गई।
ये पूछे जाने पर कि सचिवालय व प्रदेश भर में सैंकड़ों कर्मचारी व अधिकारियों के संगठन है क्या किसी ने उनकी मदद की। इन्होंने आंदोलनकारियों ने कहा कि कहीं से कोई मदद नहीं है। समाज से जरूर कुछ लोग खाने -पीने व बाकी सामान की मदद कर देते है।इसके अलावा टैक्सी यूनियन ने भी कुछ मदद की। कुछ लोग व्यक्तिगत स्तर पर चावल आटा आदि दे जाते है।
जिला प्रभारी राजेश ठाकुर आखिर में कहते है कि सुक्खू सरकार ने दृष्टिहानों को बेसहारा पशुओं की तरह सड़कों पर छोड़ दिया है । चाहे वो अब जिए या मरे, सरकार को कोई फिक्र नहीं हैं। लेकिन वो भी अपने मंसूबों पर अडिग है जब तक मांगे नहीं मानी जाएगी वो डटे रहेंगे।
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