शिमला। हिमाचल प्रदेश सरकार 2002 से प्रदेश में जैवविविधता अधिनियम के तहत पंतजलि, डाबर, हमदर्द हिमालय जैसी दर्जनों फार्म कंपनियों की ओर से अपने उत्पादों के लिए जड़ी बूटियों ले जाने की एवज में सरकार को मिलने वाली राशि न वसूलने के चलते इन कंपनियों को अनुचित लाभ देकर और सरकार के खजाने को नुकसान पहुंचाने का करोड़ों रुपए का घपला कर रही है। सरकार यह घपला अधिनियम को लागू न करके कर रही हैं।
राज्य सरकार की ही नहीं केंद्रीय प्रवर्तन निदेशालय जैसी एंजेसियों ने भी इस ओर आंखें मूंदें हुई है। ये कंपनियां इस अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद भी प्रदेश के जंगलों से जड़ी बूटियां ले जाकर अपने उत्पाद तैयार कर उन्हें महंगे दामों में बाजार में बेच कर कई गुणा मुनाफा कमा रही है।
जैव विविधता अधिनियम 2002 के तहत प्रदेश से जो भी कंपनी इन जड़ी बूटियों को कमर्शिलय तौर पर इस्मेताल करने के लिए खरीदती है,उन्हें इस कीमत की तीन से पांच फीसद तक की रकम जैव विविधता बोर्ड को अदा करनी होगी। अधिनियम में दूसरा प्रावधान यह है कि इन कंपनियों को अपने टर्न ओवर का .1 से .5 फीसद तक बोर्ड को अदा करना होगा। बोर्ड को यह पैस उन पंचायतों को देना होगा जहां से इन जड़ी बूटियों को ले जाया गया हैं ताकि इस पैसे इन जड़ी बूटियों का संरक्षण किया जा सके और विविधता कायम की जा सके।
इस अधिनियम को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ भी विभिन्न राज्यों की मदद कर रहा है जबकि केंद्रीय सरकार भी संयुक्त राष्टÑ संघ के दबाब के आगे दबाव में है। लेकिन बावजूद इसके प्रदेश सरकार 2002 से लेकर अब तक इस अधिनियम को लागू नहीं कर पाई है।
प्रदेश में इस अधिनियम को लागू करने के लिए राज्य जैव विविधता बोर्ड का गठन किया गया है लेकिन वह अभी तक पंचायत स्तर से लेकर जिला व राज्य स्तर तक खड़े किए जाने वाले ढांचे को ही खड़ा नहीं कर पाया है।
इल्जाम तो ये भी है कि बड़े नेता और सरकार के आला अधिकारी कुछ फार्मा उद्योग के दबाव में इस अधिनियम को लागू नहीं होने दे रहे है। हालांकि पर्यावरण विभाग के अधिकारी इस बात को लेकर कोई जुबान नहीं खोलते है। फार्मा उद्योग की ताकत दुनिया में हर कोई जानता है।
कोई भी कंपनी बिना राज्य जैव विविधता बोर्ड की अनुमति के इन जड़ी बूटियों को बाहर नहीं ले जा सकती। लेकिन प्रदेश में खुलेआम 2002 से यह हो रहा है। सरकार की नाक के नीचे सालाना करोड़ों रुपयों की जड़ी बूटियां इन कंपनियों को जा रही है। कोई पूछने वाला नहीं है। राज्य की एजेंसियां तो खामोश है ही केंद्रीय एजेंसी प्रर्वतन निदेशालय भी खामोश है। जबकि प्रदेश में इडी का कार्यालय कई साल पहले खुल चुका है।
सूत्रों के मुताबिक जो फार्मा कंपनियां निर्यात करती है,उनमें से तीन चार कंपनियों ने जरूर राष्टÑीय जैव विविधता बोर्ड के तहत प्रदेश से जड़ी बूटियों को ले जाने की अनुमति मांगी है। राष्टÑीय बोर्ड ने इन आवेदनों को राज्य बोर्ड को भेज दिया है। लेकिन बाकि कंपनियां अभी तक बोर्ड तक नहीं पहुंची है।
सूत्र बताते है कि सभी फार्मा कंपनियों को यह बताना होता है कि उन्होंने कच्चे माल को किस राज्य से खरीदा है। बाकायदा वेंडर है जिनके जरिए ये कंपनियां माल खरीदती है। अगर स्थानीय लोगों से भी खरीदती है तो भी इन्हें हिसाब किताब रखा होता है। सरकार ये सब कुछ मंगवा सकती है और फार्मा कंपनियों से 2002 से लेकर अब तक करोड़ों की रकम वसूल सकती है।
पर्यावरण विज्ञानियों की माने तो प्रदेश में दर्जनों ऐसी जड़ी बूटियां है, जो बाकी राज्यों में नहीं होती है। ्रपालमपुर स्थित हिमालय जैव संपदा प्राद्योगिकी संस्थान के एक शोध के मुताबिक 34 फीसद जड़ी बूटियों को ही कानूनी तौर पर राज्य से बाहर ले जाया जाता है बाकी सब गैरकानूनी तौर पर बाहर जारही है और यह अपराध है। इस संस्थान के शोध में यह भी आया था कि जिन पौधों की जड़े ही निकाल दी जाती है उनमें से नब्बे फीसद खत्म होने के कगार पर है। ऐसे में अगर इनकी खेती होगी तो जैव विविधता भी बचेगी व स्थानीय लोगोें को रोजगार भी मिलेगा।
बोर्ड राज्य विज्ञान व प्रौद्योगिकी परिषद के अधीन है। अतिरिक्त प्रधान सचिव राज्य विज्ञान व प््राौद्योगिकी तरुण कपूर ने कहा कि बोर्ड में स्टाफ की कमी है व इन कंपनियों को एक महीने के भीतर नोटिस जारी कर दिए जाएंगे। उन्होेंने कहा कि सालाना 30 -35 लाख रुपए की आय बोर्ड को होगी। लेकिन सरकार के पास अभी ढांचा ही नहीं है। जबकि सूत्र बताते है कि यह आय सौ करोड़ सालाना बनती है। उतराखंड राज्य विविधिता बोर्ड ने इस तरह की वसूली के लिए योग गुरु बाबा रामदेव की कंपनी पंतजलि को नोटिस भेजा था,बताते है कि यह मामला अदालत चला गया है। तरुण कपूर भी मानतेइहै कि उनकी ओर से नोटिस दिए जाने पर ये कंपनियां अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है। ऐसे में सरकार तभी इस कानून को लागू करना चाह रही है जब उसके पास अपनी पूरी तैयारी हो। लेकिन यह तैयारी 2002 से अब तक पूरी नहीं हो पाई है, इसे लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं।
उधर,यह अधिनियम 2002 से लेक अब तक लागू नहीं हुआ इस बावत क्या सरकार जांच कराएगी ,इस बावत पर्यावरण मंत्री विपिन सिंह परमार ने कहा कि वह मामला समझ कर कुछ बता पाएंगे।
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