शिमला (2दिसंबर2024)।भाजपा व आरएसएस की आक्रामक राजनीति के आगे दम तोड़ता वाम आंदोलन हिमाचल वाम के नए चेहरे संजय चौहान के लिए संभालना ज्यादा आसान नहीं है। नई राजनीतिक धाराओं के बीच वामपंथ की मूल वैचारिक धारा से समझौतावादी रवैया अपना चुकी वाम नेताओं की जुंडली अब अलग राह पर चली हुई है।
नगर निगम के पूर्व महापौर संजय चौहान को हिमाचल वामपंथ यानी माकपा की कंमाड दी गई है। उन्हें राज्य सचिवालय का सचिव बनाया गया है।नगर निगम में उन्होंने और डिप्टी मेयर टिकेंद्र पंवर ने नौकरशाही और बाबूओं को कसा तो खूब और काम भी खूब किया लेकिन वो उसे राजनीतिक लाभ के लिए नहीं भूना पाए। नतीजतन वामपंथ की राजनीति राजधानी ही नहीं पूरे प्रदेश में आज हाशिए पर पहुंच चुकी है।
वामधारा से जुड़े नेताओं का कहना है कि माकपा ने वाम विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता से समझौता कर लिया। व्यक्तिगत व तात्कालिक लाभ मार्क्सवाद का मुखौटा पहन कर तो हासिल किए जा सकते है लेकिन आखिरी पंक्ति में खड़े व्यक्ति की जंग लड़ते हुए उसे पार्टी की विचारधारा से जोड़े रखने का हुनर जब तक वाम नेताओं में नहीं आएगा तब वाम आंदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता।
जिस तरह से संजय चौहान और टिकेंद्र पंवर ने नगर निगम शिमला में अच्छा काम किया था उसी तरह राकेश सिंघा ने ठियोग के विधायक रहते हुए विधानसभा में वामपंथ की आवाज को बुलंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वो विधानसभा के भीतर खूब गरजे व कांग्रेस व भाजपा को बता दिया कि विधायक का मतलब क्या होता है। हालांकि वो व्यावहारिक राजनीति के तहत कभी जयराम के सखा तो कभी कांग्रेस के करीब होते भी नजर आए।
लेकिन सबसे बड़ी खामी ये रही है कि ये दोनों ही नेता अपने –अपने समय में संगठन का जो ढांचा तैचार करना था उसे खड़ा करने में विफल रहे है।इनके साथ लोग जुड़े भी लेकिन वो उन्हें पार्टी में कंवर्ट करने में नाकाम रहे है। नतीजतन आज ठियोग में अगर वाम आंदोलन खड़ा करना हो तो वहां पर जमीन पर वाम काडर ही नहीं मिलेगा। जिनका वाम विचारधारा के प्रति झुकाव है भी,उन्हें पार्टी से जोडने के लिए कोई कार्यक्रम ही नहीं है। कमोबेश ये स्थिति पूरे ही इस पहाड़ी राज्य में हैं।
इसी तरह शिमला भी हुआ था। मेयर व डिप्टी मेयर तो वाम नेता बन गए थे लेकिन संगठन कमजोर हो गया और संगठन तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक वैचारिक धारा को गहरे से नहीं पकड़ा जाएगा।वाम नेता भी मोदी व शाह की तरह अपनी बातों को थोपने से जब पीछे नहीं हटेंगे तब तक कुछ नहीं होने वाला है।मोदी व शाह के पास तो सत्ता का हंटर है। जबकि वाम आंदोलन के समक्ष जनता के हंटर के जरिए आगे बढ़ने की चुनौती है। इस चुनौती को केवल और केवल ईमानदारी व प्रतिबद्धता से ही पार किया जा सकता है।
कांग्रेस व भाजपा की तरह ही वाम नेताओं में भी एक बात घर कर गई है कि अगर वो संगठन को खड़ा करने में लग जाएंगे तो फसल तो कोई और काटेगा। जब तक वो अपने लिए संगठन खड़ा करने की अवधारणा से दूर नहीं होगा तब तक वाम आंदोलन खड़ा होना मुश्किल ही नहीं असंभव है।
संघ की तरह ही वाम संगठन ही जिसमें जीवनपर्यंत काम करने वाले लोगों की टीम होती है। यानी ‘ होलटाइमर’लोगों की टीम है। ऐसे वे कई कुछ कर सकते है। ऐसा नहीं है कि वाम राजनीति के लिए स्पेस की कमी है।वैसे भी दक्षिणपंथ धारा की राजनीति आज अपने उग्र व कुरूप रूप में चरम पर पहुंच चुकी है जिसमें सत्ता की खातिर छल,दमन समेत वो सब कुछ है जो आजाद और लोकतांत्रिक ख्यालों पर कीलें ठोकने का काम कर रही है।ऐसे में वाम राजनीति के लिए स्पेस ही स्पेस है। कमी प्रतिबद्धता और बेहतर रणनीति की है।
ये ठीक है कि वाम राजनीति के लिए समाज में लीक से हटकर चलना पड़ता है। हालांकि ये मुश्किल नहीं है ।
वामपंथ राजनीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती आरएसएस व भाजपा से मिल रही है व जब तक वाम धारा आरएसएस के कामकाज और उसकी रणनीतियों की गहरी समझ पैदा नहीं कर पाएगी तब तक वो कभी देश द्रोह तो कभी टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे जुमलों का शिकार होती ही रहेगी।
माकपा को अपने भीतर के अंतरविरोधों से भी जूझना पड़ रहा है। शिमला में ही कई गुट एक दूसरे को पटकनी देने में लगे रहते है। जबकि शिमला के वामपंथियों ने बाकी जिलों में वामपंथ को एक सीमा से आगे पनपने ही नहीं दिया है। वामपंथ के पास आज वही पुराने घिसे पिटे मुददे और नारे है। युवाओं, महिलाओं और समाज के बाकी कुचले तबकों में चेतना जगाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। जो है भी वो सतही स्तर पर ही है।
हालांकि माकपा के राज्य सचिवालय के पूर्व राज्य सचिव ओंकार शाद पार्टी में किसी भी तरह की गुटबाजी से इंकार करते हैं लेकिन पिछले एक दशक की हिमाचल की वामपंथ की राजनीति और उसके तौर तरीकों की भीतरी चीर-फाड़ की जाए तो उनका दावा ज्यादा टिकता नजर नहीं आ रहा है।
यही कारण है कि वाम राजनीति की आवाम में स्वीकार्यता शिथिल हुई है।अब देखना है कि संजय चौहान आगामी आने वाले समय में वामपंथ की राजनीति को किस बुलंदी तक ले जा सकते है। ये उनकी वाम विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता और सांगठनिक रण कौशल की परीक्षा भी है।
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