दाड़ला/शिमला। वो कभी जिस जमीन के मालिक थे आज उसी जमीन पर लगे कारखाने में मजदूर हैं और अब इन्हें इस कारखाने से भी नौकरी से हटा दिया है। आलम ये है कि अब इन मजदूरों के पास न तो जमीन रह गई है और न ही नौकरी।अभी 80 मजदूरों को नौकरी से निकाला गया है और करीब 120 मजदूरों की सूची तैयार है। कइयों को वीआरएस के जरिए बाहर का रास्ता दिखा गया है।
ये कांड कहीं और नहीं राजधानी शिमला से करीब 45 किलोमीटर दूर जिला सोलन की अर्की तहसील के दाड़लाघाट में लगे अंबुजा सीमेंट कंपनी के कारखाने में वीरभ्ाद्र सरकार की नाक के नीचे अंजाम दिया गया है। गौरतलब हो कि अंबुजा कंपनी के कर्ताधर्ताओं और मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के रिश्ते कभी सीडी के जरिए पूरे देश में गूंजे थे। रिश्तों के मामले में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल व शांताकुमार भी पीछे नहीं हैं। लेकिन जो कीमत अर्की तहसील के इन किसानों को चुकानी पड़ी हैं वो हमारे नीति निर्धारकों और सफेदपोश नेताओं को कई सवालों के कठघरे में खड़ा कर देती है।
हटाए गए मजदूरों की माने तो प्रदेश के बड़े उद्योगपति अंबुजा के इस कारखने में घटे इस कांड में न तो प्रदेश विधानसभा से पास हुए कानून और न ही संसद से पारित कानून किसी काम आए हैं। यहां पर सभी कायदे कानूनों को सूली पर लटका दिया गया है। मामला मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से लेकर प्रदेश के राज्यपाल व संबधित केबिनेट मंत्री के नोटिस में एक अरसे से हैं लेकिन सब मौन साध चुके हैं। उधर विपक्षी पार्टी भाजपा भी दुबक कर बैठ गई है जबकि स्थानीय एमएलए भाजपा से ही हैं।
अब नौकरी से निकाले ये मजदूर कंपनी के गेट के आगे विरोध पर बैठे हैं और 26 तारीख को महापंचायत बुलाने का एलान कर रखा है।
रिपोर्टर्स आइ डाॅॅट कॉम ने इन मजदूरों से उनका हाल जानने का प्रयास किया तो जो खुलासा हुआ वो रसूखदारों की नंगई को सामने ला देने के लिए काफी हैं।
अंबुजा सीमेंट ने 1993 में कशलोग के मदन शर्मा की चार बीघा जमीन 20 हजार बीघा के हिसाब से माइनिंग के लिए अधिग्रहित कर ली थी । हिमाचल सरकार व अंबुजा सीमेंट के बीच एक एमयूओ हुआ था जिसमें साफ लिखा है कि जिस भी परिवार की जमीन कारखाने के लिए अधिग्रहित की जाएगी उस परिवार के एक सदस्य को कंपनी में स्थाई नौकरी दी जाएगी। लेकिन मदन शर्मा ने जो खुलासा किया वो चौंकाने वाला हैं। शर्मा ने कहा कि कंपनी ने उसे 1994 से 1998 तक ठेकेदार के पास रखा व 1998 में नौकरी से निकाल दिया। उसके बाद 2008 में उसे दोबारा नौकरी पर बुलाया । लेकिन तब भी ठेकेदार के पास की रखा लेकिन उसे रेगुलर कभी नहीं किया।जबकि बाहरी राज्यों के लोगों को जो जी हजूरी करते थे उन्हें एक साल बाद ही रेगुलर कर दिया जाता रहा। अब कंपनी ने उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। वो कहते हैं कि उनके पास तो ड्राइविंग का हैवी लाइसेंस भी हैं लेकिन कंपनी ने तय कर लिया है कि इन्हें हटाना हैं तो फिर हटाना ही हैं।
वो सरकार के बाबू एसडीएम अर्की की ओर से 2011 को लिखा पत्र भी दिखाते हैं जिसमें एसडीएम अंबुजा कंपनी को आदेश देते हैं कि मदन शर्मा की जमीन कंपनी ने अपने कारखाने के लिए अधिग्रहित की है व एमओयू के तहत इसे स्थाई रोजगार दिया जाए। सरकार के इस बाबू का पत्र कंपनी के कारदारों ने रददी की टोकरी के हवाले कर दिया । स्थाई रोजगार तो नहीं दिया उल्टे नौकरी से निकाल दिया। लेकिन सरकार ने एमओयू का उल्लंघन करने व कानून तोड़ने के लिए कंपनी व इसके ठेकेदार के खिलाफ कुछ नहीं किया हैं। चूंकि आगामी साल चुनाव का है व नेताओं को चंदे की दरकार हैं।ऐसे में कुछ होगा इसमें संदेह हैं।
ये रही एसडीएम अर्की की ओर से 2011 में अंबुजा कंपनी को लिखी चिटठी-:
दास्तां एक मदन शर्मा की ही नहीं हैं।गांव संघोही बाजण के लेख राम के पास तो एक बीघा ही जमीन बची हैं बाकी चार बीघा जमीन अंबुजा कंपनी के लिए 2004 में 29 हजार प्रति बीघा के हिसाब से अधिग्रहित कर ली गई । उन्हें भी कंपनी ने स्थाई नौकरी देने का भरोसा दिया था। इन्हें 2006 में ठेकेदार के पास नौकरी पर रख लिया । लेख राम की माने तो उन्हें एक ठेकेदार से दूसरे ठेकेदार के पास ठेल दिया जाता रहा । कंपनी में जहां वो काम करते थे वहां कभी 24 लोग काम करते थ्ेा अब वहां केवल 3 ही लोग काम कर रहे है। मजदूरों का बड़े पैमाने पर शोषण हो रहा हैं। बताते हैं कि बुजुर्ग मां समेत पांच जनों का परिवार है गुजारा कैसे चलेगा ये मालूम नहीं हैं।
गांंव खाता के नीलम चंद और हीरा लाल दोनोंं भाई हैैं।नीलम बताते हैं कि कंपनी ने उन दोनों को नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा दिया हैं। ये बताते हैं कि कंपनी को जब इनकी जमीन की जरूरत थी तो कंपनी के बड़े अफसर राकेश शर्मा रात को इनके घर आए व उनकी मां के आगे हाथ जोड़ कर कहा कि जमीन कंपनी को दे दें उनके बच्चों को स्थाई नौकरी पर रखा जाएगा। मां ने हां कर व 62 हजार प्रति बीघा के हिसाब से जमीन अंबुजा को दे दी। लेकिन बेटों को वादे के मुताबिक स्थाई नौकरी कभी नहीं मिली। हीरालाल को कंपनी ने 2008 व नीलमचंद को कंपनी ने 2009 में ठेकेदार के पास भेज दिया। अब दोनों को नौकरी से निकाल दिया। नीलम चंद बताते है कि उनके पास साढ़े तीन बीघा जमीन बची हैं जिसमें दो बीघा घासनी है व बाकी पर मकान व खेत हैं। चूंकि पानी हैं नहीं ऐसे में खेती भी कैसे करेंगे।
गांव ब्राइली के कर्मचंद तो अब काम करने के काबिल भी नहीं रहे। वो 2006 से कंपनी में काम करते थे ।अक्तूबर 2015 में मशीन में उनका दाहिना हाथ आ गया व अब ये हाथ बेकार हो चुका है। वो कहते हैं कि सुरक्षा का इंतजाम नहीं था । मशीन में लॉक ही नहीं था व हाथ बेकार कर बैठे। थोडी़ बहुत जो जमीन थी उसमें से कुछ रोड़ के लिए चली गई व अब कुल दो बीघा जमीन बची है। वो कहते है कि उन्हें कंपनी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया हैं व वो तो घर में भी कोई काम करने के काबिल नहीं बचे हैं। परिवार कैसे चलेगा ये समझ में नहीं आ रहा हैं।
पछयूर गांव के कमलेश कुमार की दास्तां भी जुदां नहीं हैं। उनके पिता को अंबुजा के ठेकेदार के पास 1994 से 1998 तक नौकरी पर रहे। बीच में बेटे कमलेश कुमार को भी ठेकेदार के पास नौकरी मिल गए। पिता को नौकरी से हटा दिया गया तो व उनकी जगह पर कमलेश कर को लगा दिया।कंपनी ने जब जमीन अधिग्रहित की थी तो इसके बाबूओं ने भरोसा दिया था कि स्थाई नौकरी दी जाएगी। लेकिन कमलेश कुमार भी बाकियों की तरह ठेकेदार के पास ठेल दिए गए। इस परिवार के पास कुल 18 विस्वा जमीन बची है और उपर से ठेकेदार ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
दाड़ला के बृजलाल को भी कंपनी ने ठेकेदार के पास 2008 में नौकरी दी थी । इनकी 1 बीघा तीन विस्वा जमीन 62 हजार प्रति बीघा के हिसाब अधिग्रहित की गई। इनके पास अब तीन चार बीघ जमीन ही बची हैं। वो बतो हैं कि कंपनी के अफसर राकेश शर्मा ने इनको भरोसा दिया था कि उन्हें ट्रेनिंग दी जाएगी। लेकिन ट्रेनिंग तो नहीं मिली अब नौकरी से बाहर कर दिया है।
गांव मांगू के यशवंत भी 2007 से ठेकेदार के पास काम कर रहे थे, उनकी चार बीघा जमीन कंपनी अधिग्रहित कर रही है। दाड़लाघाट के ही जितेंद्र शुक्ला 2008 से यहां काम कर रहे थे ।उन्हें भी निकाल दिया गया हैैं।अंदरौली के दिनेश शर्मा 2007 से ठेकेदार के पास काम कर रहे थे। अब इनी नौकरी भी नहीं रही हैं। बरशणु गांव के कुलदीप सिंह 2006 से काम कर रहे थे।उन्हें एक जगह से दूसरी जगह तक भेजा जाता रहा । वह कहते है कि उन्हें प्रोजेक्ट में लगाया गया बताया जाता रहा व वो जब भी वेतन बढ़ाने की बात करते तो कहते कि उन्हें कहा जाता कि वो प्रोजेक्ट में हैं इसलिए उनकी सेलरी नहीं बढ़ाई जा सकती। जुलाई में 1800 रुपए प्रति महीना बढ़ाए लेकिन नवंबर में नौकरी से ही हटा दिया ।
कंपनी के ठेकेदार के पास 2010 पीपलूघाट सीमू के उमेश को भी नौकरी मिली । इनके पास 6 -7 बीघा जमीन है जबकि गांव समाणा के मनोज 2009 से यहां काम कर रहे थेे।इनके पास डेढ बीघा जमीन हैं। गांव कुनकुनु के प्रदीप भी 2010 से यहां काम कर रहे थे। इनके पास दो बीघा जमीन हैं लेकिन बंदरों की वजह से खेती भी नहीं हो सकती। कंपनी ने नौकरी से निकाला तो अब बेरोजगार हो गए हैैं।गांव नवगांव के नरेश कुमार 2006 से नौकरी पर हैं इनके पास कुल डेढ बीघा जमीन हैं। इन्हें भी निकाल दिया गया हैं। दाड़ला मोड़ के समीप गांव पनसौड़ा के खेमराज शर्मा 2007 से ठेकेदार के पास थे। निकाले गए मजदूरों की माने तो अब यहां का काम एल एंड टी को ठेके पर दिया जा रहा हैं।
राजस्थान के अशोक कुमार ठेकेदारों के पास 22 सालों से काम कर रहे थे। इन्हें भी रेगुलर नहीं किया गया व अब नौकरी से हटा दिया गया हैं। पीपलू घाट कुलाणु के राजू 25 सालों से काम कर रहे थे। इसी तरह पटटा सरयांज के लेख राम ठाकुर भी पिछले 22 सालों से अलग अलग ठेकेदारों के पास काम कर रहे थे। लेकिन उन्हें रेगुलर नहीं किया गया । आखिर में इन्हं भी नौकरी से हटा दिया गया हैं।
कंपनी के अफसर बताते है कि निकाले गए कामगार उनके कर्मचारी नहीं है वो ठेकेदारेां के काम करते थे। ये टंपरेरी लेबर का काम करते थे। जब काम ही नहीं रहा तो उन्हें निकाल दिया । लेकिन मजदूर बताते है कि कंपनी में काम है । उनकी जगह पर दूसरे लोगों से काम चलाया जा रहा हैं।
अंबुजा कंपनी के एचआर हैड अविनाश वर्मा से रिपोर्टर्स आइ डॉट कॉम ने उनका पक्ष जानना चाहा तो उनके जवाब चौंकाने वाले थे। उनसे पूछा गया कि मजदूरों को निकालने से पहले क्या सरकार व संबंधित अफसरों की मंजूरी ली गई थी। वर्मा ने कहा कि निकाले गए मजदूर अंबुजा कंपनी के मुलाजिम नहीं है।वो ठेकेदारों के पास टेंपरेरी आधार पर लगे थे। लेबर कानून कहता है कि अगर किसी ठेकेदार के पास सौ से कम लेबर हैं तो उसे उन्हें हटाने के लिए किसी की मंजूरी की जरूरत नहीं हैं।इसके अलावा इन्हें हटाने से पहले इन्हें नोटिस दिया गया व उन्हें पूरा भुगतान कर दिया गया हैं।
ये पूछे जाने पर कि सरकार व अंबुजा प्रबंधन के बीच जो एमयूओ साइन हुआ था जिसके तहत जिन किसानों की जमीनें सीमेंट कारखाने के लिए अधिग्रहित होगी उनके परिवार से एक सदस्य को स्थाई नौकरी दी जाएगी। क्या कंपनी नेे एमओयू का उल्लंघन नहीं किया हैं। वर्मा ने कहा कि हमने ठेकेदारों को कहा कि अगर ऐसे मामले हैं तो उन्हें वापस काम पर बुला लिया जाए। उन्हें कंपनी ठेकेदारेां के पास क्यों भेज रही हैं कंपनी के रोल पर क्योेंं नहीं रखती । वर्मा बोले ,सभी को तो रेगुलर आधार पर नहीं रखा जा सकता । इसके अलावा कंपनी ने कारखाना लगाने पर हजारों डॉलर लगा रखे ऐसे में कंपनी की भी तो कोई अथारिटी होनी चाहिए । सरकार भी ठेके पर मुलाजिम ही रखती है व कानून इसकी इजाजत देता है। कंपनी ने कौन सा गुनाह कर लिया।
लेकिन कारखाने में सीटू की इकाई के अध्यक्ष लच्छी राम व कोषाध्यक्ष देवराज शर्मा कंपनी के दावों को दरकिनार करते हैं। वो कहते है कि कंपनी में काम हैं। उन्हें इसलिए निकाला जा रहा है कि उन्होंने लेबर कानूनों की उल्लंघना पर आवाज उठाई थी। चंडीगढ़ में लेबर मंत्रालय के अफसरों के पास मामला लंबित हैं। कंपनी खेल खेलना चाह रही हैं। लेकिन वो लेबर कानूनों की पालना के लिए जंग जारी रखेंगे। इन दोनों को भी नौकरी से निकाल दिया गया हैं। ये दोनां येेभी खुलासा करते है कि ठेकेदार को प्रति मजदूर 10 प्रतिशत कमिशन मिलती है। वो खूब कमाई करतेे हैं। वो पीएफ विभाग के2000 -2002 के कागजात भी दिखाते है जिसमें इनका पीएफ गुजरात अंबुजा सीमेंट कंपनी से काटा गया दर्शाया गया है । लेकिन बाद में ये ठेकेदार के सुपुर्द हो गए और पीएफ भी वहीं से काटे जाने लगा। वो कंपनी के मजदूरों को दोफाड़ करने का इलजाम भी लगाते हैं व कहते हैं कि भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ से जुड़े नौ कामगारों को भी निकाला गया था। लेकिन उन्हें दोबारा काम पर बुला लिया गया।
इल्जाम तो कई और भी संगीन हैं लेकिन उनकी सत्यता की दरकार अभी बाकी हैैं।अब निगाहें वीरभद्र सरकार व उसकी करामाती मशीनरी पर लगी है कि वो इस मसले पर क्या करती हैं। सरकार व सरकारी मशीनरी की तरह स्थानीय कांग्रेस व भाजपा के नेता जिसमें विधायक भी शामिल हैं वो सब बेनकाब हो चुके हैं चूंकि इन कामगारों ने वामपंथियों के बैनर के नीचे हकों की आवाज बुलंद की है तो सब खिलाफ हो गए हैं। वजह सियासी ज्यादा हैं,जो बेनकाब तो होनी ही चाहिए।
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