शिमला। मांस के बराबर पोष्टिकता के लिए ख्यात मशरूम को किन्नौर जैसे ठंडे जिले में उगाने का प्रयोग सफल रहा हैं।
जलवायु बदलाव की आहट के बीच तापमान और नमी को बांधने का हुनर से लैस हो हिमाचल के कबायली जिला किन्नौर के किसान मशरूम की खेती करने में कामयाब हो गए हैं। अब इस खेती को पूरे किन्नौर में लोकप्रिय बनाने की चुनौती है। किन्नर कैलाश श्रृंखलाओं में बसें किन्नौर में तापमान ही नहीं नमी को बांधना भी बेहद मुश्किल था। इस ठंडे इलाके में इन दिनों हवा में नमी का फ ीसद 10 से 12 हैं। जबकि अप्रैल से जून तक ये फीसद 40 से 45 तक चला जाता हैं और जब पूरे देश में बरसात हो रही होती हैं तो यहां पर हवा में 55 से 60 फीसद नमी रहती हैं। जबकि मशरूम की खेती के लिए हवा में 70 फीसद से ज्यादा नमी की जरूरत होती हैं। खुंब की खेती के लिए 17 से 18 डिग्री के स्थाई तापमान की जरूरत होती हैं जबकि इन दिनों किन्नौर के इन इलाकों में तापमान 12 डिग्री से भी कम हैं।
प्रदेश के कबायली जिला किन्नौर में कम से कम छह महीने बर्फ पड़ी रहती हैं। अमूमन नवंबर से अप्रैल तक यह क्षेत्र ठंडा रहता हैं और हवा में नमी कमी रहती हैं। लेकिन डाक्टर यशवंत सिंह परमार वानिकी व बागवानी विश्वद्यिालय नौणी के शिक्षा प्रसार निदेशालय के तहत राष्ट्रीय जलवायु अनुरुप खेती नवाचार परियोजना [ नेशनल इनोवेशन आन कलाइमेंट रेसिलेंट एग्रीकल्चर या निकरा] के तहत यहां खुंब उगाना संभव हो पाया हैं।
जिला के कृषि विज्ञान केंद्र के प्रभारी व क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र शारबो के सहायक निदेशक डाक्टर शशि शर्मा ने यहां बसे ते ालंगी नामक गांव को निकरा परियोजना के तहत गोद लिया और पिछल्ले साल अप्रैल के बाद किसानों को खुंब की खेती का प्रशिक्षण शुरू कर दिया। यह गांव समुद्र तल से 22 सौ मीटर की ऊंचाई पर है। शशि शर्मा खुद फल विज्ञानी हैं।
वह कहते है कि पहाड़ों में जलवायु में बदलाव देख कर इस गांव को गोद में लिया गया। पहले के मुकाबले यहां का जलवायु थोड़ा गर्म हुआ हैं। ऐसे में यहां प्रयोग करने का फैसला लिया गया। फिर भी यह चुनौतीपूर्ण था। जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में खेती से लेकर जीवन तक को प्रभावित कर रहा है।
तेलंगी गांव के अलावा खवांगी, सुधारंग,शारबो और कोठी जैसे गांव भी इस परियोजना से जोड़े जा रहे हैं। साथ ही गांव के किसान अब खुद गर्मी और नमी को बांधने का हुनर सीखने लगे हैं। फिलहाल शुरू में कृषि विज्ञान केंद्र के विज्ञानियों ने नमी और तापमान को बांधने का हुनर सिखाया और व वह भी टाट व पॉली शीट का सहारा लेकर । विपरीत जलवायु में मशरूम उगाने के इस मिशन में दो सबसे बड़ी चुनौतियां था। किन्नौर के इन गांवों में कंकरीट के घर हैं या पारंपरिक शैली से पुराने मकान।
विज्ञानियों का माने तो इन गांवों में इन दोनों ही तरह के मकानों में तापमान और नमी को बांधना मुश्किल था। कंकरीट के मकानों में तापमान को बांधना चुनौती भरा काम था। इसके लिए जिस कमरे में मशरूम के थैले रखे गए उस कमरे की भीतर से दीवारों पर टाट की परतें चढ़ा दी गई। इससे ठंड थम गई । नमी के लिए पानी का छिड़काव तो किया ही जाता हैं।
जबकि पारपंरिक तरह के पहाड़ी शैली के मकानों की दीवारें मिटटी की हैं जबकि छते लकड़ी की। मिटटी और लकड़ी नमी को सोख लेती हैं। ऐसे में नमी को बांधना बेहद मुश्किल काम था। डा शशि शर्मा कहते हैं कि इसके लिए भी अंदर से दाीवारों पर पॉली शीट की लाइनिंग की गई। यह प्रयोग सफल रहा और लोग यहां पर मशरूम उगाने लग गए हैं।
केंद्र ने शुरू में अभी 16 परिवारों को जिनमें करीब 50 फीसद गरीबी रेखा से नीचे हैं को इस प्रोजेक्ट से जोड़ा हैं जबकि एक प्रोजेक्ट सामुदायिक आधार पर शुरू किया 20 -22 परिवारों को जोड़ा गया हैं।
तेलंगी गांव के 47 साल के छत्र सिंह दो निजी कंपनियों की नौकरिया छोड़ चुके हैं। वह कहते है कि उन्होंने शिमला में रेलवे कंटेनर में 9-10 साल तक नौकरी की । लेकिन बाद में ये कंपनी बंद हो गई। वह वापस गांव लौट आए। वह कहते है कि अभी तक वह सामुदायिक आधार पर लगे मशरूम के इस प्रोजेक्ट की देखभाल कर रहे हैं। लेकिन बाद में वह अपना प्रोजेक्ट लगाएंगे। उन्होंने कहा वह तब खुल कर अपना काम करेंगे। अभी तक पचास से साठ किलो मशरूम बेच चुके हैं। सामुदायिक आधार पर लगे इसे छोटे से प्रोजेक्ट में 20-22 परिवारों को जोड़ा गया हैं। यहां की पैदावार की आय इन परिवारों में बांट दी जाती हैं।
कबायली जिला किन्नौर देवी देवताओं का क्षेत्र हैं। लोगों में देवी देवताओं के प्रति आस्था भी गजब हैं। अप्पर किन्नौर में बौद्व धर्म के मानने वाले ज्यादा हैं। छत्र सिंह कहते है कि देवी देवताओं को पशुओं की बलि पर रोक हैं। इसके अलावा राधा स्वामी जैसे धार्मिक संस्थाओं ने भी अपनी पहुंच यहां तक बनाई हैं। ऐसे में अब मांस का प्रचलन धीरे -धीरे कम हो रहा हैं। वह कहते भी हैं मांस के विकल्प के तौर पर मशरूम उभर कर सामने आ रही हैं। इस बावत विज्ञानियो ंका कहना है कि किन्नौर का तापमान बेहद कम होता हें । ऐसे में लोगों के पास मांस के अलावा प्रोटीन के लिए कोई विकल्प नहीं था। अब मशरूम विकल्प बनकर उभरेगा।
गांव सुधारंग के गजेंद्र सिंह आॅटोमोबाइल में इंजीनियर हैं लेकिन 18 सालों से वह खेती और बागवानी की ओर मुड़ गए। पिछल्ले साल से उन्होंने भी मशरूम की खेती शुरू की हैं। वह कहते हैं कि मार्च के बाद वह बड़े पैमाने पर यह खेती शुरू करेंगे। वह भी दो सौ ग्राम की मशरूम की पैकिंग को 30 से लेकर 50 रुपए में बेच आते हैं। उन्होंने कहा कि आय का एक और जरिया जुड़ गया हैं। बाकी लोग भी जुड़ेंगे। वह कहते हैं उनका परिवार रोजाना मशरूम खाता हैं । कुछ बीमारियां आ गई थी। लेकिन आगे से सावधाी रखेंगे। तापमान क ो बांधने के लिए वह तो हीटर का भी इस्तेमाल करते हैंं। वह कहते हैं मार्च के बाद तापमान में बढ़ोतरी हो जाएगी और वह जो हाल बनाएंगे उसे नए ढंग से तैयार करेंगे ताकि हीटर का ज्यादा इस्तेमाल न करना पड़े और वह 12 महीने यह खेती कर सके।
इसी गांव छेरिंग लामो ने पॉलीहाउस में मशरूम की खेती शुरू की। पॉली हाउस के भीतर उन्होंने प्लास्टिक का मोटा तिरपाल लगाया और उस के अंदर मशरूम की खेती शुरू की हैं। अप्रैल के बाद वह इस खेती को और ज्यादा करेंगे। छेरिंग लामो ने कहा कि उनके अलावा उनके पति और बेटे ने भी मशरूम की खेती का प्रशिक्षण ले रखा हैं।
फल विज्ञानी शशि शर्मा कहते हैं कि वह शारबों के आसपास के गांवों के अलावा पूह ब्लाक जिला में बाकी जगहों पर भी लोगों को खुंब की खेती करने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। निकरा का यह प्रोजेक्ट तीन साल के लिए हैं व तीन सालों में पूरे जिला के किसानों को मशरूम की खेती से जोड़ने की कोशिश करेंगे।
शर्मा कहते हैं कि मार्च से अक्तूबर के बीच यहां मशरूम की खेती सहजता से की जा सकती हैं। पहाड़ कुछ गर्म हो रहे हैं। हम इसीका फायउा उठाने की कोशिश कर रहे हैं।
मशरूम में पाई जाने वाली पोष्टिकता को देखकर इसे वेजिटेबल मीट भी कहा जाता हैं। विज्ञानियों के मुताबिक मशरूम में प्रोटीन भरपूर होता हैं। उच्चरक्तचाप और मोटापे को कम करने में भी यह सहायक हैं। मधुमेह और दिल की बीमारियों के लिए भी यह बेहद लाभकारी हैं। डाक्टर शशि शर्मा कहते हैं कि इसमें फैट, सोडियम, कॉलस्ट्रियल न के बराबर होता हैं। कहा जाता है कि रोम के लोग इसे भगवान का आहार भी कहते हैं।
(0)