शिमला। वामपंथी छात्र संगठन के एसएफआइ के अखिल भारतीय राष्टÑीय सम्मेलन में वरिष्ठ पत्रकार पी साइनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि यह सरकार झूठा इतिहास खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं।
साइनाथ ने कहा कि पिछल्ले साढ़े चार साल में तर्क व वैज्ञानिक सोच पर अब तक के सबसे भयंकर हमले हुए हैं। विचारों की जंग को कुचलने की हर मुमकिन कोशिश हुई हैं। इस दमन के खिलाफ देश के लेखकों, विद्वानों,कलाकारों और छात्रों ने आवाज बुलंद की तो उन्हें तरत तरह से प्रताड़ित किया गया। इन हमलों केखिलाफ देश के 25 कलाकारों , लेखकों और विद्वानों ने अपने अवार्ड लौटा दिए।
इन लोगों ने विचारों को कुचलने की मुहिम को मानने से इंकार कर दिया हैं। वरिष्ठ पत्रकार साइनाथ ने कहा कि देश में दो तरह के गठबंधन एक साथ राज रहे हैं। एक सामाजिक -धार्मिक कटटरता का गठबंधन हैं और दूसरा आर्थिक बाजारीकरण का गठबंधन हैं।
इससे देश में असमानता और सांप्रदायिकता दोनों बढ़ी हैं। जितनी आर्थिक असमानता पिछल्ले साढ़ चार सालों में बढ़ी हैं उतनी कभी नहीं बढ़ी। मानव विकास सूचकांक में देश 131वें स्थान से 130 स्थान पर पहुंचा हैं। मोदी सरकार इसे अपनी सफलता करार दे रही हैं। प्रेस की आजादी के मामले में भारत चौथे स्थान पर लुढ़क गया हैं।
उन्होंने फोर्ब्स की ओर से जारी की जाने वाली अरबपतियों की सूचियों का हवाला देकर कहा कि 2000 में देश में आठ अरबपति थे।2012 में यह फेहरिस्त 53 तक हो गई और मार्च 2018 को जारी सूची के मुताबिक देश में 121 अरबपति हैं। इन 121 अरबपतियों के पास देश की जीडीपी का 22 फीसद हिस्सा हैं। उन्होंने कहा कि इसमें से दस फीसद अकेले मुकेश अंबानी के पास हैं। यह संपति किस गति से बढ़ी हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि 12 महीनों में अंबानी ने 1.12 हजार करोड़ रुपए की संपति जुटाई।
उन्होंने कहा कि अगर एक व्यक्ति को इतनी संपति मेहनत से जुटानी हो तो उसे1 लाख 87 हजार साल लगेंगे। उन्होंने कहा कि यह संपति बड़ी नीतियों में छोटे बदलाव कर जुटाई गई हैं। जियो की मिसाल देते हुए उन्होंने कहा कि सभी दूसरे प्रतिद्वंद्वियों को विलय के लिए मजबूर होना पड़ा।
इससे असमानता बढ़ी और ये सरकार असमानता पर जश्न मनाती हैं। उन्होंने कहा कि हर निजीकरण पर जोर दिया गयाहैं और इस निजीकरण का सबसे ज्यादा कारपोरेट मीडिया कंपनी को मिला हैं। इसी वजह से मीडिया कंपनियां शिक्षा, खनन से लेकर कई कारोबार कर रही हैं।
उन्होंने कहा कि नरेंद्र दाभोलकर, कुलबर्गी, गौरी लंकेश ,कोविंद पनसरे की हत्या इसलिए नहीं हुई की वह धर्मनिरपेक्ष थे। उनकी हत्या इसलिए की गई क्योंकि वह तार्किक थे। यह सरकार तार्किकता से डरती हैं। जो सवाल उठाए उससे खत्म कर देना चाहती हैं।
किसानी के संकट का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि देशमें 1995 से लेकर 2015 तक 3 लाख 10 हजारकिसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस सरकार ने 2015 में किसानों के आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने बंद करवा दिए। 2016 में यह आंकड़े एकत्रित करने वाले राष्टÑीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो का पुलिस अनुसंधान व विकास संगठन के साथ विलय कर दिया। अब दस महीने पहले दोबारा दोनों संस्थानों को अलग अलग कर दिया। यही नहीं देश में भूख व कुपोषण के आंकड़े एकत्रित करने वाले राष्टÑीय पोषण निगरानी बोर्ड को भी2015 में बंद कर दिया। 2014 के बाद रोजाना दो हजार किसान किसानी छोड़ रहा हैं और वह खेत मजदूर में तबदील हो रहा हैं।
उन्होंने कहा कि इस साल मार्च में 40 हजार किसानों ने नासिक से मुबई तक की 182 किलोमीटर की यात्रा तय की । ये किसान 38 डिग्री में नंगे पांव चले । महाराष्टÑ के केबिनेट मंत्री ने इनसे बात करना गवारा नहीं समझा और इन्हें अर्बन नक्सल करार दे दिया। जब यह मुबंई पहुंचे तो उनकी हालात देखकर मध्य वर्ग को सहानुभ्ूाूति हुई वह इनकी मदद को आगे आए।
साइनाथ ने कहा कि यह सकारात्मक संकेत हैं। मध्यम वर्ग जिसमें, डाक्टर, वकील, पत्रकार, अध्यापक , नौकरीपेशा लोग व अन्य वयवसायी शामिल है की किसानों से दूरी हो गई हैं। उन्होंने कहा कि कितने पत्रकार है जिन्होंने अरसे से किसानों व मजदूरों से बात नहीं की हैं।
उन्होंने सम्मेलन में पहुंचे सात सौ के करीब युवाओं का आहवान किया कि वह 29 व 30 नवंबर को दिल्ली के रामलीली मैदान में मध्यमवर्ग व किसानों के बीच होने वाले संवाद में खुद को शामिल करे। कुछ किसान संगठनों ने दिल्ली चलों का नारा देकर दिल्ली में एकत्रित होने का आहवान किया हैं। किसानों की एक ही मांग है कि संसद तीन सप्ताह तक किसानी के संकट पर संसद में चर्चा करे।
इस मौके पर मुंबई आइआइटी के प्रोफेसर रहे राम कुमार ने कहा कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अराजकता फैली हुई हैं। उन्होंने कहा कि दूसरे विश्वयुद्व के बाद अमेरिका और ब्रिटेन में उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया गया।
सार्वजनिक संस्थानों में उच्च शिक्षा मुफत कर दी गई व इन शिक्षण संस्थानों में सबसे ज्यादा वो लोग पहुंचे जो विश्वयुद्वों की वजह से उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाए थे। इस दौरान दोनों मुल्कों में सार्वजनिक क्षेत्रों में बहुत ज्यादा शिक्षण संस्थान खोले गए। लेकिन बाद में रोनाल्ड रीगन और मारग्रेट थेचर के समय उच्च शिक्षा पर होने वाले सार्वजनिक खर्च पर कट लगने शुरू कर दिए गए। उच्च शिक्षा के संस्थान कारोबार के अडडे बन गए।
सरकारों ने कहा कि अगर उच्च शिक्षा लेनी है तो कर्ज ले सकते हैं।रामकुमार ने खुलासा किया कि अमेरिका में इस समय 80 लाख छात्र लोन डिफाल्टर हैं। वह कहीं और जगह पढ़ाई नहीं कर सकते हैं। वह हर कहीं नौकरियां कर रहे हैं और बैंक का कर्ज चुका रहे हैं। इनमें से दो तिहाही महिलाएं हैं। ये युवा वहां पर बैंक या जिनसे कर्ज लिया हैं उनके बंधुआ बन गए हैं।
भारत तेजी से इसी रास्ते जा रहे हैं। रामकुमार ने कहा कि 2000 में शिक्षा पर अंबानी व बिरला रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया कि सरेकार प्राथमिक शिक्षा का जिम्मा लें और उच्च शिक्षा निजी क्षेत्र के हवाले कर दें। देश में उच्च शिक्षा के शिक्षा कर्ज का इंतजाम कर दिया। उन्होंने कहा कि देश में शिक्षा कर्ज जो 2014 में 5.7 फीसद एनपीए बन गया था वह बढ़ते बढ़तेमार्च 2018 में आठ फीसद हो गया है। शिक्षा हासिल कर ली लेकिन नौकरियां नहीं मिली तो कर्ज नहीं चुकाया जा सका। अब बैंक नया खेल खेल रहे हैं।
कर्ज की वसूली का काम आउटसोर्स किया जा रहा हैं। शिक्षा कर्ज के रूप में दिया गया बैंकों का अब तक 1030 करोड़ रुपया एनपीए हो चुका हैं व इसके से 950 करोड़ रुपए के कर्ज को बैंकों ने आउटसोर्स कर दिया हैं और आउटसोर्स जिसे किया है वह कंपनी रिलायंस हैं। बैंकों ने यही नहीं किया उन्होंने 45 फीसद रकम आउटसेर्स कंपनी से ले ली व बाकी बची 45 फीसद को आउटसोर्स कंपनी के नाम कर दिया हैं। मायने यह कि वसूली होने पर वह कंपनी का होगा।
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