शिमला। विधानसभा के मानसून सत्र में चार दिन तक चर्चा के लिए मुददा अति गंभीर व संवेदनशील था। जिसकी पृष्ठभूमि में 16 साल की छात्रा गुडिया का गैंगरेप व मर्डर मामला व इस पर हिमाचल पुलिस की करतूतों वाली कहानी और एक आरोपी का पुलिस लॉकअप में कत्ल हो जाने व पुलिस की ओर से कत्ल का इल्जाम दूसरे आरोपी पर लगा देना था। ये मामला बेहद संगीन व संवेदनशील व समाज को झकझोर देने वाला था। चूंकि यहां घात समाज के सबसे मर्मस्थल पर हुआ था और समाज तीव्रता से कुलबुलाया भी था।ऐसे में प्रदेश की जनता ने सतापक्ष से चाहा था कि सरकार जवाब देगी और विपक्ष से आस लगाई थी कि वो सरकार से जवाब मागेंगी व जवाब लेकर भी रहेगी।
कानून –व्यवस्था को लेकर चर्चा के दौरान इन जैसे वंचितों के मसलों पर कहीं तो आवाज उठा जाती व खाकी व दूसरे बाबूओं को संदेश चला जाता कि जवाबदेही भी हो जाती हैं।लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इसके लिए प्रदेश की 70 लाख जनता ने सभी 68 विधायकों को अकूत साधन, गौरवशाली स्थल और चर्चा करने वालों की सहमति व सुविधा से पर्याप्त समय भी मुहैया कराया था। ऐसे संवेदनशील व समाज को झकझोर देने वाले मुददे पर चर्चा के लिए विधानसभा के फ्लोर से बेहतर और कौन सा स्थान हो सकता था। लेकिन कांग्रेस व भाजपा के विधायकों ने चार दिनों तक इस मसले पर चर्चा ही नहीं की।चर्चा उन लोगों ने नहीं की जिन्हें प्रदेश की जनता ने सारे सुख-साधनों से लैस सदन में भेजा ही इस भरोसे के साथ है कि वो वहां जाकर बीपीएल परिवार की गुडिया , बिना माता पिता के दादी के संघर्ष सहारे बड़े हुए वन रक्षक होशियार सिंह जैसे वंचितों के लिए न्याय की आवाज उठा सके।
लेकिन सदन में नियमों का ऐसा जाल बिछा कि सता पक्ष व विपक्ष इन वंचितों की आवाज उठाने की आड़ में हंगामा करता रहा।
ऐसा कतई नहीं था कि विकल्प नहीं थे। दोनों ही पक्षों के पास विकल्प थे। इस विधानसभा में पहले विपक्ष के हंगामें के बावजूद प्रश्नकाल दर्जनों बार चला हैं। विरोध में विपक्ष कभी वॉकआउट करता रहा हैं तो कभी सदन के भीतर ही नारेबाजी करता रहा हैं। लेकिन इस बार केवल एक दिन प्रश्नकाल को इस तरह चलाने की कोशिश हुई । केवल तीन सवालों के बाद सदन स्थगित कर दिया गया। तीनों सवाल भाजपा विधायकों को पूछने थे लेकिन वो कानून व्यवस्था पर नियम 67 के तहत चर्चा कराने की मांग पर अड़े रहे। जबकि स्पीकर ने इस नियम के तहत चर्चा न कराने का फैसला लेकर नियम 130 या 62 के तहत चर्चा कराने का फैसला ले लिया था। विपक्ष भाजपा सदस्य इस पर तैयार नहीं हुए। चारों दिन यही चलता रहा।
भाजपा सदस्य चारों दिन वेल में आ जाते ,नारेबाजी करते और स्पीकर की आसंदी को जाने वाली दोनों सीढि़यों पर उनकी कुर्सी के करीब तक पहुंच जाते। पिछले साल दिसंबर में धर्मशाला में लगे विधानसभा सत्र में भी भाजपा विधायकों ने अपनी बात मनवाने के लिए ऐसा ही किया था। तब स्पीकर ने कुछ विधायकों को सदन से निलंबित कर दिया था। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। भाजपा विधायकों ने वॉकआउट नहीं किया और स्पीकर सदन को स्थगित कर देते। लंच से पहले सब फ्री जाते।चार दिन तक लगातार यही रहा।
अब बड़ा सवाल ये ही हैं कि आखिर सतापक्ष और विपक्ष ने चर्चा क्यों नहीं की। क्या सतापक्ष को अपना भंडा फूट जाने का डर था या विपक्ष में ये डर था कि कानून व्यवस्था को लेकर जो वो प्रचार जनता के बीच कर रहा हैं,उसका जवाब सरकार दे देगी और उसका भंडा फूट जाएगा।
सदन के बाहर वीरभद्र सिंह तो कह भी चुके थे कि कोटखाई गैंगरेप मामले के बाद भाजपा के पूर्व विधायक नरेंद्र बरागटा ने आंदोलनकारियों के सामने भड़काउ भाषण दिया व थाने में जो सामान व रिकार्ड जलाया गया। वो ये भी कहते रहे कि सरकार के पास फुटेज मौजूद हैं। क्या मीडिया में इस तरह से बात करना भाजपा को कोई संदेश देना था। हालांकि गुडिया केस में मुलजिम ही बदल देना पुलिस लॉकअप में मुलजिम का कत्ल कर इल्जाम सह आरोपी पर लगा देना सरकार को कटघरे में खड़ा करता हैं।
इसी तरह महेंद्रसिंह ने धर्मपुर में 15 साल की लड़की से तीन मुस्लिम युवाओं की ओर से गैंगरेप पर करने का मामला उठाया। सदन में उन्होंने उस समय सनसनी फैला दी जब उन्होंने कहा कि लड़की की मां से मंडी अस्पताल में एमएलसी कराने के लिए पैसे मांगे गए व उसके पास पैसे नहीं थे सो उसने उन्हें फोन किया।
इसका जवाब कौल सिंह ने दिया भी और कहा कि ऐसे सभी मामलों में एमएलसी फ्री होती हैं व इस मामले में भी फ्री हुई हैं। विधायक सदन में झूठ बोल रहे हैं। जयराम ने होशियार सिंह को लेकर बात रखी तो बिंदल ने भी इस तरह कई मसले उठाए। ये मसले प्रश्नकाल के दौरान उठे और बिना किसी नियम के यह चर्चा चली।
ये सब बिना नियम के हुआ। ये सदन के नेता वीरभद्र के साथ-साथ नेता प्रतिपक्ष को भी मालूम था। स्पीकर को तो मालूम था ही। आखिर बिना नियम के इन विधायकों ने ये चर्चा क्यों की। ये ठीक हैं कि स्पीकर की अनुमति से हुआ । लेकिन विधायकों ने कहा कि वो अपनी बात रखना चाहते हें तो स्पीकर ने इजाजत दी। ऐसे थोड़े ही न हैं कि विधायकों को नियमों का पता ही नहीं हैं । बहरहाल विधायकों के पास सदन में कुछ भी कहने का विशेषाधिकार हैं। तो क्या गुडिया व होशियार सिंह जैसे वंचितों, गरीबों व असहायों के कोई विशोषाधिकार नहीं हैं।
आखिर सदन फिर किस काम के लिए हैं। वंचितों की आवाज यहां नहीं उठाई जाएगी तो फिर कहां उठाई जाएगी।जनप्रतिनिधि नहीं उठाएंगे तो फिर कौन उठाएगा। जनता खासकर ऐसे लोगों की आवाज उठाने के लिए ही तो विधायकों को पैसे )(वेतन-भते) देती हैं। विधायकों खुद ही अपने वेतन भते बढा़ने का अधिकार जनता ने दे रखा हैं। सभी सुविधाओं से लैस आलीशान मकान दे रखें हैं । कम ब्याज पर कर्ज लेने की सुविधा दे रखी हैं। विधानसभा हलकों में सुविधाएं । टीए डीए का प्रावधान हैं और इन सबका ऑडिट भी नहीं होता ।इसके अलावा बाबूओं की फौज अलग से हैं। इसके बावजूद गुडिया व होशियार सिंह जैसे वचिंताके की आवाज न उठाए तो समाज आहत तो होगा ही। पर बड़ा सवाल ये भी हैं कि आखिर जनता जनप्रबतनिधियों से सवाल कब पूछती हैं।लोकतंत्र के असफल होने का बड़ा कारण ही ये हैं कि जनता हिसाब किताब नहीं लेती हैं।शायद जनता प्रौढ़ नहीं हुई हैं।
बहरहाल ,मानसून सत्र के चारों दिन सदन की कार्यवाही का न चलना क्या सतापक्ष कांग्रेस और विपक्षी पार्टी भाजपा के बीच किसी डील का हिस्सा था, यह संदेह भी खड़ा कर देता हैं।चूंकि ये आखिरी सत्र था और इसके बाद स्पीकर समेत सभी विधायक अपने –अपने चुनाव क्षेत्रों में जनता से वोट मांगने मैदान में उतरने चले गए।
मानसून सत्र के दौरान सतापक्ष के कांग्रेस विधायकों व सरकार के पास पिछले पौने पांच सालों में सरकार ने क्या –क्या उपलब्धियां दर्ज किया ,उनका लेखा-जोखा जनता के सामने रखने का मौका था। जबकि विपक्षी पार्टी भाजपा के पास पिछले पौने पांच सालों में सरकार की करतूतों से जनता को अवगत कराने का अवसर था।
लेकिन दोनों पक्ष के सदस्यों ने ऐसा कुछ भी करने से गूरेज किया। नियमों के जाल का ऐसा पैंतरा चला कि सदन में चार दिनों तक हंगामा चलता रहा।
हिमाचल विधानसभा के इतिहास में ये पहली बार हैं कि किसी भी सत्र में एक दिन भी प्रश्नकाल न चला हो और न ही किसी मसले पर चर्चा हुई। विश्लेषक मानते है कि विधानसभा में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। ये तब हुआ जब सदन में छठी बार मुख्यमंत्री बने वीरभद्र सिंह व दो बार मुख्यमंत्री रह चुके प्रेम कुमार धूमल सदन में थे। एक सदन का नेता था तो दूसरा नेता प्रतिपक्ष। नियमों की जानकारी भी दोनों को ही थी। इसके अलावा भी सदन में धुरंधर कम नहीं थे।
अब सारे विधायक (जिनको भी टिकट मिलेगा) जनता के बीच जाएंगे और बड़े-बड़े दावे करेंगे। काश, जनता इनसे केवल मानसून सत्र के इन चार दिनों का हिसाब पाती।
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