शिमला। एकल आर्बिट्रेटर ने तीन सौ मेगावाट के बास्पा पन विद्युत परियोजना चरण दो के लिए बिजली बोर्ड की ओर से बरसों पहले किए गए सर्वे व अन्य पड़ताल की एवज में आए खर्च के भुगतान के मामले में प्रदेश सरकार और हिमाचल प्रदेश बिजली बोर्ड लिमिटेड पर दस लाख का जुर्माना लगाया है। साथ ही बिजली बोर्ड लिमिटेड की याचिका को खारिज कर दिया है।
सेवानिवृत न्यायमूर्ति सी के महाजन ने बिजली बोर्ड लिमिटेड की ओर से दायर दावे को लेकर कहा कि सरकार व बिजली बोर्ड ने बितजली कंपनी को अनावश्यक रूप से मुकदमे में उलझाया जबकि उसका दावा खत्म हो चुका था और जिस समय अवधि के भीतर इस किया जाना था वह सीमा भी समाप्त हो चुकी थी।
गौररहे कि जिला किन्नौर में 300 मेगावाट के बास्पा -।। पन विद्युत परियोजना को 1991-92 में जय प्रकाश इंडस्ट्री को आवंटित किया गया था । 2015-16 में इस परियोजना को जेएसडब्ल्यू एनर्जी लिमिटेड ने खरीद लिया था।
हिमाचल प्रदेश बिजली बोर्ड लिमिटेड जो 2010 से पहले हिमाचल बिजली बोर्ड था ,ने जय प्रकाश इंडस्ट्री पर दावा किया था कि उसने1965-66 से लेकर परियोजना के आवंटन तक इस परियोजना के सर्वे व अन्य पड़ताल का काम किया था। इसकी एवज में बोर्ड ने मूल रूप से एक करोड़ 36लाख रुपए का खर्च किया था। दावे में इस मूल रकम पर 1965 -66 से लेकर अब तक चक्रृद्धि ब्याज को भी जोड़ा गया था । 2005 तक यह रकम 359 करोड़ तक पहुंच गई थी।
महाजन ने अपने आदेश में कहा है कि इस रकम के लिए तब दावा किया गया जब आडिट में मामला सामने आया जबकि इस दावे की वैधता बनती ही नहीं थी। प्राथमिक सबूत तक सामने नहीं लाया गया जबकि आज यह रकम छह सौ करोड़ तक पहुंच गई है।ऐसे में बिजजली बोर्ड व सरकार का रवैया सही नहीं है।
आदेश में कहा गया है कि रिकार्ड का अवलोकन करने पर पाया गया कि जो गणनापत्र रेकार्ड पर ला गया है और जो , साबित नहीं हो पाया है उसे इस रकम पर 16 फीसद की चक्रवृद्धि ब्याज 1966 से लगाना असंगत है। जबकि उस समय बिजली बोर्ड जो बाद बिजली बोर्ड लिमिटेड के नाम से कंपनी बन गया था, अस्तित्व में ही नहीं आए थे।
यही नहीं जब बोर्ड के अधिकारियों से सुनवाई के दौरान जिरह की गई तो अधिकारी ने कहा कि जिस आधर पर इस रकम की गणना की गई है उससे जुड़े दस्तावेज उसके विभाग में नहीं है और उसने बिजली बोर्ड लिमिटेड के बही खातों में नहीं देखा कि यह रकम कंपनी से ली जानी है।
दूसरे अधिकारी ने जिरह के दौरान कहा कि जब बिजली बोर्ड कंपनी बना व यह बिजली बोर्ड लिमिटेड के नाम से जाना जाने लगा, उसने बोर्ड से बिजली बोर्ड लिमिटेड को क्या -क्या परिसंपतियां व देनदारियां आई इस को लेकर उसे कोई जानकारी नहीं है। उसे यह भी मालूम नहीं है कि बोर्ड को कंपनी से ये रकम लेनी भी है।
आदेश में कहा गया है कि जब कंपनी ने बिजली बोर्ड के दावे को लेकर समय सीमा का प्रश्न उठाया था तो इस मामले में सरकार पार्टी बन गई। कार्यान्वयन समझौते में यह शर्त है कि बोर्ड तीन साल व सरकार 30 साल तक किसी भी विवाद को उठा सकती है। लेकिन सरकार का इस मामले से कोई लेना देना ही नहीं है व सरकार पक्ष्ज्ञ बन ही नहीं सकती।
आदेश में कहा गया है कि सरकार व बोर्ड रेकार्ड पर ऐसा कोई कानूनी दस्तावेज या संतुलन पत्र पेश नहीं कर पाई जिससे यह साबित हो पाए कि बिजली बोर्ड ने इस परियोजना के आवंटन से पहले इसके लिए सेर्व व अन्य कोई पड़ताल की थी।
आदेश में कहा गया है कि यह परियोजना 2003 में चालू हो गई और 2006 तक इस रकम को लेकर दावा किया जा सकता। लेकिन बोर्ड ने 2005 में 44 करोड़ रुपए की मांग की जिसे जय प्रकश कपंनी ने देने से इंकार कर दिया। इसके बाद 13 मई 2010 को बिजली बोर्ड लिमिटेड ने 87 करोड़ 42 लाख की मांग कंपनी के समक्ष की । कंपनी ने इसे भी देने से इंकार कर दिया। इसके बाद कंपनी को 2016 तक स्मरण पत्र भेजे जाते रहे।
न्यायमूर्ति महाजन ने अपने आदेश में कहा है कि बिजली बोर्ड 2003 से लेकर 2006 तक इावा कर सकता था। लेकिन 2005 से लेकर 2010 तक यह खामोश हो गया व अचानक 2010 में फिर मांग कर दी। दावा तब भी नहीं किया।
यहां यह बड़ा सवाल है कि क्या बिजली बोर्ड के पास सच ही इस सर्वे और की गई पड़़ताल के दस्तावेज नहीं है। सूत्रों की माने तो यह दस्तावेज भावानगर में स्टोर में पड़े हो सकते है लेकिन इन्हें तलाशने की किसी ने कोशिश ही नहीं की। इस मामले में निजी कारोबारियों को कहीं लाभ देने का संदेह तो है ही ।
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