अर्की। काली के शांत स्वरूप के पूजन के बाद अर्की के सायर मेले में होने वाली झोटों की लड़ाई शनि गृह की क्रूर दृष्टि व कोप से बचाती थी। यहीं कारण है कि इस मेले को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। ये केवल मान्यताएं ही है।
मान्यताएं थी कि झोटों के मैदान में आमने –सामने लाए जोडों को देखने भर से शनि ग्रह का निवारण हो जाता था।इसके अलावा जनता में इस मेले का क्रेज ही झोटों की लड़ाई की वजह से था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद झोटों की ये लड़ाई बंद हो गई हैं। बहरहाल,ये किसी ने सोचा ही नहीं कि झोटों की लड़ाई के बजाय कोई और फॉरमेट यहां पेश किया जाता । कम से कम झोटों की प्रदर्शनियां तो लगाई ही जा सकती थी। बेहतर झोटों को पुरस्कृत कर दिया जाता।इससे भी बेहतर सोचा जा सकता हैं।
कई सालों तक झोटों की लड़ाई कराने में रेफरी का काम करने व यहां स्थित प्राचीन काली के मंदिर में रोजाना पूजा अर्चना करने वाले गिरधारी लाल शर्मा कहते हैं अब एक झोटे को आस-पास के गांवों से मंगवाया जाता हैं व सायर वाले दिन काली के मंदिर के सामने उसकी पूजा कर उसे मैदान में घुमाया जाता हैं। मेले का असली आकर्षण अब खत्म हो गया हैं। गौर हो कि सायर संक्राति के दिन आती हैं।
वो कहते है कि वो कई सालों तक झोटों की लड़ाई कराते रहे व बाकायदा रेफरी का काम करते थे। उन्हें कभी नहीं लगा कि ये पशुओं के साथ क्रुरता हैं। उनके जीवन में एक या दो बार ही ऐसा हुआ कि कोई व्यक्ति जख्मी हुआ हो। अन्यथा कभी कुछ नहीं हुआ।
वो कहते है कि लोग ये मेला राजाओं के समय से मनाते आ रहे हैं।एक बार राज परिवार ने इस मेले के स्थल को बदल दिया व मेला किसी वजह से खरीयूंण नामक स्थान पर कर दिया।
राजा को भयंकर द्ष्टांत हुआ और काली ने भी उसे दर्शन दिए तो अगले साल से काली के मंदिर और चौगान में ही झोटों की लड़ाई शुरू हो गई। पहले राजपरिवार का दखल हुआ करता था। लेकिन अब ऐसा कतई नहीं हैं।
सोनी सोनी कहते है कि अगर झोटों के लड़ते समय खून निकल जाता तो मंदिर से पूजा का थाल ले जाकर मैदान में उनका पूजन कर दिया जाता और उस खून से झोटों को तिलक लगा दिया जाता।
इस बावत गिरधारी लाल शर्मा भी कहते हैं कि खून का तिलक लगाने का ये मतलब समझा जाता कि देवी बलि ले ली ।वो कहते है कि किवंदतियों के मुताबिक कभी यहां पर काली के लिए झोटों की बलि दी जाती होंगी। लेकिन बदलते समय के साथ इसे बंद कर दिया तो नया फॉरमेट निकाल लिया व झोटों की लड़ाई की जाने लगी।सवाल ये ही है कि जब प्राचीन समय में मेले का फॉरमेट बदला जा सकता था तो अब ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता।
वो ये भी कहते है कि किसान यहां पर उनकी फसल का जो सबसे बेहतर उत्पाद होता उसे यहां प्रदर्शनी में लगाता। बिजली बोर्ड से बतौर डिप्टी सेक्रेटरी रिटायर श्याम लाल गुप्ता कहते कि जब वो छोटे थे तो बच्चों को ही नहीं महिलाओं व बड़े बूढ़ों के अलावा युवाओं को भी इस मेले का इंतजार रहता।वो भी मानते है कि असल क्रेज झोटों की लड़ाई का ही होता था।
पहले मनोरंजन का बढि़या साधन मेले ही होते थे। वो भी कहते है कि पहले ये मान्यता है कि यहां झोटों को देखने भर से ग्रह उतरते हैं।
संदीप सोनी कहते हैं कि यहां काली व चामुंडा माता के मंदिर से ही मेला शुरू होता हैं।
जबकि गिरधारी लाल शर्मा कहते है कि संक्राति से एक दिन पहले से काली माता के मंदिर में पाठ शुरू हो जाते है जो सायर के दूसरे दिन तक चलते हैं। हवन में मेले के मुख्य अतिथि से पूर्णाआहुति दिलाई जाती हैं।
अगर कोई नशे में हो तो उसे हवन में नहीं आने दिया जाता।
स्थानीय दुकानदार रविंदर ठाकुर जो यहां बरसों से दुकान करते हैं मायूस होकर बोलते हैं कि जब से झोटो की लड़ाई बंद हुई क्रेज ही चला गया।
जो भी हो अर्की का सायर मेला अपने आप में अनूठा था। ये कोई भी नहीं मानता कि यहां पर पशुओं के साथ क्रुरता होती थी या झोटों को जबरदस्ती लड़ाया जाता था।
कई सालों तक मेला कमेटी के प्रधान रहे सतीश कुमार कहतेहै कि जो भी हो मेला अपना होना चाहिए। अब नगर पंचायत अर्की की अध्यक्षा सावित्री गुप्ता मेला कमेटी की प्रधान हैं।
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